सामान्य धारणा है कि सोशल मीडिया का दुरुपयोग कर आम लोगों को बरगलाया जा सकता है। यह सच के उलट है। इसके विपरीत सोशल मीडिया के आने से पहले ऐसा किया जाना सहज संभव था जो अब लगभग असंभव हो चुका है। अपने देश में ही सोवियत संघ ने लोगों में सस्ती पुस्तकों, पत्रिकाओं और प्रायोजित लेखों के माध्यम से एक दुष्प्रयोग को उद्धार का एकमात्र मार्ग के रूप में सफलता पूर्वक प्रचारित किया था। उनका काम इतना पक्का था कि उनके वैश्विक साम्राज्य के ढह जाने के बाद भी उस इंद्रजाल में विश्वास करने वाले लोग बड़ी संख्या में बचे हुए हैं । आज सोशल मीडिया पर हर घटना और परिघटना के तमाम पक्ष सहज दृश्य होते हैं, और किसी विचार का एकाधिकार संभव नहीं है।
कुछ लोग ऐसा अत्यंत निराशा के साथ बताते हैं कि लोगों की सोच का बड़े पैमाने पर हरण हो गया है। ऐसा लगने का कारण है, और कारण यह है कि उन्हें किसी विचार विशेष की प्रबलता दिखती है। सतह के नीचे सच यह है कि लोग बड़े कायदे से अपने फायदे की बात कर रहे हैं। पहले भी किसी विचार विशेष की ही प्रबलता होती थी लेकिन लोग उसे सामान्य के रूप में लेते थे। जैसा कि उक्त मत के विद्यमान होने से ही स्पष्ट है कि अब प्रधान विचार को भी चुनौती मिल रही है; और यह सोशल मीडिया का ही योगदान है।आज का सच यह है कि सामान्य जन ने अधिष्ठान के पदाधिकारियों को अलग कर स्वतंत्र रूप से विचारों का चयन और कथन कर रहे हैं। सामान्य जन लोकविमर्श में स्वतंत्र चेतना के संग सक्रिय भागीदार बन गए हैं। लोक विमर्श पर पुस्तकालयों, प्रयोगशालाओं, अभिलेखागारों, स्टूडियो, मंचों का नियंत्रण नहीं रह गया है। यह समय वास्तव में संस्थानों के सीखने का है और उन्हें गवेषणा में गंभीरता और निष्ठा का समावेश करते हुए सामान्य जीवन और हित को संबोधित करना होगा।
नीरज कुमार झा
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