जो भी कह लो,
दूसरा वैसा हुआ नहीं कहीं,
कभी भी।
वह जो कर गया,
वैसा कुछ हुआ नहीं कहीं,
कभी भी।
कमियाँ उसमें थीं,
होंगी और भी,
वैसा मानव हुआ नहीं कहीं,
कभी भी।
था वह मानव ही,
उतना मानव मानव,
हुआ नहीं कहीं,
कभी भी।
जितनी बातें उसने की,
जितनों से की,
उतनी किसी ने नहीं की,
कहीं भी और कभी भी।
जितने उसके हुए,
जितनों का वह हुआ,
वैसा हुआ नहीं कहीं,
कभी भी।
जो लड़ता हो नित बड़ी-छोटी लड़ाइयाँ,
उसके लिए कोई शत्रु नहीं,
ऐसा हुआ नहीं कभी भी,
कहीं भी।
वह आस्थावान था,
था जन-जन का प्रेमी भी।
ऐसा कोई हुआ नहीं,
कभी भी।
पंथ अनेक,
पथ अनेक,
लेकिन वैसा पथिक
हुआ नहीं कहीं,
कभी भी।
वह सनातन का था,
वह ध्रुव था और है अभी भी,
बाकी है तुम्हारी मर्जी।
नीरज कुमार झा
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