यह तो एक उदाहरण भर है। निशाना सोशल मीडिया पर जन विमर्श है। यह सामान्य नागरिकों के सोचने, समझने और बातों के साझा करने पर आपत्ति है। मगर जो बात मुझे सही लगती है, वह है कि इतिहास क्या, कोई भी विषय जीवन से जूझते जन को न तो सीखाया जा सकता है और न ही उन्हें सीखने की जरूरत है। उनका विमर्श जिस रूप में है, वही उनका है और उनके काम का है। इतिहास को ही लें। विगत जो था, वही होगा, लेकिन किसी भी अतीत की परिघटना के विभिन्न आख्यान हैं जो विभिन्न इतिहासकारिता (मैं हिस्टोरीआग्रफी के लिए इतिहासलेखन के स्थान पर इतिहासकारिता शब्द का प्रयोग करता हूँ) के द्वारा सृजित की गयी होती हैं। इससे स्पष्ट है कि इतिहास अतीत की परिघटनाओं के विवरण और विश्लेषण की विभिन्नता मात्र है। दूसरे शब्दों में, इतिहास विचारधारात्मक उत्पाद है (यह थोड़ा ज्यादा हो गया है, बाद में मैं कभी संतुलित सामान्यीकरण करने का प्रयास करूंगा।)। हालाँकि इस संदर्भ में जो बात मैं कहना चाहता हूँ, वह है कि वस्तुनिष्ठ इतिहास उपलब्ध है, लेकिन इतिहास की किताबों में नहीं। वहाँ इतिहास को लिखा या पढ़ा नहीं जाता है बल्कि अतीत वहाँ स्वयं मुखर है, और वहीं मौजूद है अनगढ़ लेकिन विशुद्ध इतिहास। वह स्थान है लोकाचार, लोगों का आचार-व्यवहार; उनकी प्रथाएँ, भाषा (लोकोक्तियाँ और लोकगीत), अनुष्ठान, विश्वास-अंधविश्वास, भय-अपेक्षाएँ, और प्रीतियाँ-घृणाएँ। भले ही सोशल मीडिया पर प्रचलित बातें तथ्यात्मक रूप से भ्रामक या गलत हों, लेकिन उनके पीछे की भावनाएँ बिल्कुल खरी हैं। प्रचारित बातें भावनाएँ नहीं निर्मित करती हैं बल्कि गहरी भावनाएँ उन बातों को व्यापकता देती हैं।
इस बात को ध्यान रखने पर सुधी जन का रोष कम होगा और साधारण लोगों की बुद्धि को शायद कम कोसेंगे। यदि मेरी बात गलत है तो वे सुधीजन मेरा सुध लेते हुए मुझे शिक्षित करेंगे। कृपया।
नीरज कुमार झा
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें