भारतीय लोकतंत्र की जड़ें इसके सभ्यतागत मूल्यों और लोकाचरण में है। इस सभ्यता में वैयक्तिक अस्मिता, वैचारिक व सांस्कृतिक विविधता, और ऐहिकता की मर्यादा की मान्यता सदैव बनी रही है। भारत सभ्यता राष्ट्र-राज्य ही नहीं, सभ्यता जनतंत्र भी है।
वैश्विक स्तर पर जनतंत्र का उदय और प्रसार, जिसका भारत भी हिस्सा है, का संबंध हालाँकि आधुनिकता के विकास से है, जिसकी उत्पति पाश्चात्य सभ्यता में हुई। लेकिन, जनतंत्र यूरोप में वहाँ की सभ्यता के मूल्यों और लोकाचरण के प्रतिवाद के रूप में विजयी हुआ था और यूरोपीय परंपरा का वाद उस कारण से सीमित हो गया। ऊपर से, यह दीर्घकालिक, या कहें तो, युगीन हिंसात्मक संघर्षों के बाद ही संभव हुआ।
आज भी जब विश्व में जनतंत्र की व्याप्ति सीमित ही है, भारत में जनतंत्र की स्वीकार्यता लगभग स्वाभाविक रही। इस संदर्भ में इस बीजलेख का उद्देश्य यह रेखांकित करना है कि जनतंत्र किसी भी कालखंड की स्थिति नहीं, बल्कि उसकी उपलब्धि है। जनतंत्र हर पीढ़ी से सचेतन प्रयासों की मांग करता है। हमें अपनी इस सभ्यता के प्रसाद को निरंतर परिष्कृत करना है। दूसरा जुड़ा अहम लक्ष्य विश्व और विश्व व्यवस्था को जनतांत्रिक बनाना है। सर्वजन को जनतंत्र की गरिमा से युक्त करना भारत का ही दायित्व हो सकता है।
नीरज कुमार झा
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