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मंगलवार, 3 दिसंबर 2024

दर्शन नहीं रहे रहस्यों की भूल भुलैया

दर्शन नहीं हो रहस्यों की भूल भुलैया 
न हो महानता का मंत्र 
न ही हो यह पारलौकिकता का यंत्र 
और न ही उद्धार का महासूत्र 

हो यह जीवन की समझ 
हो यह कष्टों से त्राण का उपक्रम 
बने यह अभय का विधान 
दे यह स्थिरता और निश्चितता का तंत्र 
  
ध्यान में चराचर की  मर्यादा रहे 
ध्येय प्राणिमात्र की गरिमा का प्रतिष्ठापन हो 
संवेदना इसकी श्वास हो 
प्रेम बने  इसका स्पंदन  

दर्शन को जमीन से जोड़ना होगा 
जीवन की पीड़ाओं, आशाओं, आकांक्षाओं को इसे सुनना होगा 
दार्शनिकों को अंतर की उलझनों से 
बाहर की बनावटों से निकलना होगा 

दर्शन नहीं हो सकता यान के वातायन से आपदाग्रस्तों का निरीक्षण 
न ही हो सकता सितारा सरायों में ठहर कर लोकाचार का पर्यवेक्षण 
इसे घुटन को महसूसना होगा 
जीवन के संघर्षों का भागीदार इसे बनना पड़ेगा 

यह खिलखिलाते फूलों को सहेजे  
सराहना करे झुलसे चेहरों पर लोटती हँसी की भी 
करे सबको स्वच्छता और स्वास्थ्य के प्रति सजग 
सुनिश्चित करे सर्वसुलभ सुगंध की वाटिकाएँ  व सौन्दर्य के विहार 
  
मंत्र एक पुराना है 
इसे जीवन में लाना होगा 
सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित् दुःखभाग् भवेत्

नीरज कुमार झा



सोमवार, 2 दिसंबर 2024

दर्शन की परख

मैं प्रस्तुत बीजलेख में दर्शन को इस तरह परिभाषित करता हूँ : दर्शन होने के अर्थ और उद्देश्य को नियत करने हेतु व्यवस्थित विचार है।

दर्शन का प्रभाव सकारात्मकअथवा नकारात्मक हो सकता है, या इसका कोई प्रभाव नहीं हो सकता है। यह बीजलेख निष्प्रभावी दर्शन को लेकर नहीं है।

दर्शन की प्रकृति जानने हेतु परीक्षण की यह युक्ति अपनायी जा सकती है: यह देखा जाए कि इसकी उत्पति भयजनित है अथवा संभावनालक्षित। दूसरा, यह मानवों को साधन मानता है या साध्य। तीसरा, यह लक्ष्यानुरूप मानवजीवन के संगठन की योजना निरूपित करता है या मानवजीवन को आधारित कर लक्ष्य निर्धारित करता है।

विश्व इतिहास को दृष्टिगत करने पर प्रभावोत्पादकता को लेकर इस परीक्षण की उपादेयता स्पष्ट हो सकती है।

नीरज कुमार झा

रविवार, 1 दिसंबर 2024

दर्शन और समाज

मेरा यह विश्वास समय के साथ दृढ़ होता जा रहा है कि किसी भी सभ्यता अथवा राष्ट्र की स्थिति, उत्कर्ष, अथवा अपकर्ष का प्रधान निर्धारक समुदाय में क्रियाशील विचारधारा होती है। हर समुदाय की एक प्रधान विचारधारा होती है जिसमें परंपरा, आंदोलन अथवा आरोपण का योग होता है।

किसी जनपद की भौतिक परिस्थितियों का प्रभाव वहाँ की विचारधारा पर हो सकता है लेकिन ये विचारधारा के निर्धारक नहीं होते हैं। ऐसे मानव होते हैं जिनकी बौद्धिक क्षमता और ऊर्जा उनके द्वारा लक्षित समुदाय की नियति बदल देती है और जिनका प्रभाव पूरी मानवता अथवा इसके बड़े हिस्से पर पड़ता है।

विचारधारा का प्रधान निर्धारक वास्तव में दर्शन है। इस संदर्भ में दर्शन के वैश्विक इतिहास के अध्ययन की आवश्यकता है, विशेषकर उनसे उत्पन्न प्रणालियों की और उनके प्रभावों और दुष्प्रभावों की।

प्रत्येक समाज को उत्कर्ष हेतु और अपकर्ष से रक्षार्थ दार्शनिकों की आवश्यकता होती है। आज कृत्रिम बुद्धि के दौर में सक्षम प्राकृतिक बुद्धि के पोषण की आवश्यकता और बढ़ गयी है।

दर्शन और दार्शनिकों का पोषण अपने-आप में पर्याप्त नहीं है। समाज को निःशंक दार्शनिकों से कठिन प्रश्न करने  चाहिए। यह दार्शनिकों और समाज के हित में है कि लोग अपने अनुभवों के आधार पर दार्शनिकता का गहन परीक्षण करें। उनसे मांग करें कि वे ऐसी बातें भी करें जो व्यावहारिक और बोधगम्य हों ।

नीरज कुमार झा