मैं प्रस्तुत बीजलेख में दर्शन को इस तरह परिभाषित करता हूँ : दर्शन होने के अर्थ और उद्देश्य को नियत करने हेतु व्यवस्थित विचार है।
दर्शन का प्रभाव सकारात्मकअथवा नकारात्मक हो सकता है, या इसका कोई प्रभाव नहीं हो सकता है। यह बीजलेख निष्प्रभावी दर्शन को लेकर नहीं है।दर्शन की प्रकृति जानने हेतु परीक्षण की यह युक्ति अपनायी जा सकती है: यह देखा जाए कि इसकी उत्पति भयजनित है अथवा संभावनालक्षित। दूसरा, यह मानवों को साधन मानता है या साध्य। तीसरा, यह लक्ष्यानुरूप मानवजीवन के संगठन की योजना निरूपित करता है या मानवजीवन को आधारित कर लक्ष्य निर्धारित करता है।
विश्व इतिहास को दृष्टिगत करने पर प्रभावोत्पादकता को लेकर इस परीक्षण की उपादेयता स्पष्ट हो सकती है।
नीरज कुमार झा
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