किसी जनपद की भौतिक परिस्थितियों का प्रभाव वहाँ की विचारधारा पर हो सकता है लेकिन ये विचारधारा के निर्धारक नहीं होते हैं। ऐसे मानव होते हैं जिनकी बौद्धिक क्षमता और ऊर्जा उनके द्वारा लक्षित समुदाय की नियति बदल देती है और जिनका प्रभाव पूरी मानवता अथवा इसके बड़े हिस्से पर पड़ता है।
विचारधारा का प्रधान निर्धारक वास्तव में दर्शन है। इस संदर्भ में दर्शन के वैश्विक इतिहास के अध्ययन की आवश्यकता है, विशेषकर उनसे उत्पन्न प्रणालियों की और उनके प्रभावों और दुष्प्रभावों की।
प्रत्येक समाज को उत्कर्ष हेतु और अपकर्ष से रक्षार्थ दार्शनिकों की आवश्यकता होती है। आज कृत्रिम बुद्धि के दौर में सक्षम प्राकृतिक बुद्धि के पोषण की आवश्यकता और बढ़ गयी है।
दर्शन और दार्शनिकों का पोषण अपने-आप में पर्याप्त नहीं है। समाज को निःशंक दार्शनिकों से कठिन प्रश्न करने चाहिए। यह दार्शनिकों और समाज के हित में है कि लोग अपने अनुभवों के आधार पर दार्शनिकता का गहन परीक्षण करें। उनसे मांग करें कि वे ऐसी बातें भी करें जो व्यावहारिक और बोधगम्य हों ।
नीरज कुमार झा
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