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गुरुवार, 15 सितंबर 2011

अमीरी के कटीले झाड़

बेमुरुव्वत  मरुस्थल में 
अमीरी के कटीले झाड़ 
उग रहे तेजी से चारों ओर
चोरी-चकारी
लूट-खसोट 
ठगी और बेईमानी 
का ही जोर 
हर ओर
हैं नखलिस्तान ईमान के भी 
लेकिन दीवारें खड़ी 
उनके चारों ओर 
जमीन होती यदि सही
लगते बाग एक पर एक 
एक से एक
मेहनत के फूल खिलते
उद्यम के वृक्ष उगते
साहस के तरूवर छूते आकाश 
छाया होती घनी 
सुगन्धित होती हवा 
होती खुशी
संतुष्टि 
शांति 
चारों ओर   

- नीरज कुमार झा 

सोमवार, 12 सितंबर 2011

अभी भी दूर है सभ्यता हमसे

तय है 
भविष्य की पीढ़ियाँ
जब लिखेंगी इतिहास 
हमें रखेंगी बर्बरों की श्रेणी में
हमारी तथाकथित सभ्यता 
खर्चती है
सबसे ज़्यादा  संसाधन 
ध्वंस के उद्योगों पर
और हिंसा के प्रशिक्षण पर
मानवता की प्रगति बौनी है 
इसकी अदमित दानवता के आगे
हमारे पंथ और तंत्र के मूल में 
है अभी भी सिर्फ हिंसा
अभी भी उपेक्षित है
भारत का वसुधैव कुटुम्बकम का  सन्देश 
और अहिंसा का दर्शन 
हमारी सभ्यता अभी भी दूर है
सत्य, अहिंसा और अनुराग के
जीवन दर्शन और शैली से 
अभी भी दूर है सभ्यता
हमसे

- नीरज कुमार झा 






सोमवार, 5 सितंबर 2011

रामचरितमानस : भारतीय जनतान्त्रिक चेतना का आधार स्तम्भ


डा. नीरज कुमार झा


भारतीय जनतंत्र वैश्विक राजशास्त्रियों के लिये विस्मय का विषय है. भारत का आकार उपमहाद्वीपीय है तथा यहाँ की सांस्कृतिक विभिन्नताएँ अपार हैं. औपनिवेशिक शासक भारतीय राष्ट्रवाद को निरा गल्प मानते थे. उदाहरण के लिए पंजाब, बंगाल, मद्रास या गुजरात आदि प्रदेशों के मध्य भिन्नताएँ इतनी ज़्यादा थीं कि वे भारत को किसी सूरत में राष्ट्र मानने को तैयार नहीं थे. स्वंत्रतता के समय भारत की अतिदरिद्रता तथा विभाजन के कारण व्याप्त अराजकता के माहौल में भारत में जनतंत्र की बात तो दूर, भारत की भौगोलिक अखण्डता भी संदिग्ध मानी जा रही थी. आज आज़ादी के चौंसठ साल बाद न सिर्फ़ भारत की अखण्डता यथावत है बल्कि भारत का जनतंत्र निरंतर नयी बुलंदियों को छू रहा है. जनतंत्र की भारत में ऐसी अप्रत्याशित सफलता को पाश्चात्य राजनीतिक संस्थाओं की प्रभावशीलता के रूप में देखना भारी भूल होगी. आज भी दुनियाँ की  आधी आबादी गैरजनतांत्रिक हुकुमतों के अधीन है. पाश्चात्य राजनीतिक प्रणालियाँ विश्व के अन्य क्षेत्रों में जनतंत्र को स्थापित करने में अभी तक कारगर नहीं हुई हैं. भारतीय  उपमहाद्वीप पर ही ब्रिटिश उपनिवेशवाद की सामूहिक विरासत के बावजूद (नेपाल को छोड़कर) भारत के पड़ोसी देशों में जनतंत्र की स्थिरता कायम नहीं हुई है. वास्तव में भारतीय राष्ट्र व जनतंत्र की पृथक पृष्ठभूमि है. भारत की औपनिवेशिक दासता के कालखंड ने अवश्य ही भारतीय एकता की स्थापना और जनतंत्र के उदय में उत्प्रेरक का काम किया हो लेकिन यह कालखंड भारतीय राष्ट्र या जनतंत्र का प्रणेता नहीं है. भारत की राष्ट्रीयता या जनतंत्र की जड़े इसकी सभ्यता में ही समाहित हैं. तुलसीदास रचित रामचरितमानस ऐसी ही कृति है जो न सिर्फ़ भारतीय सभ्यता के महती मूल्यों को अभिव्यक्त करती है बल्कि उसे पुष्ट भी करती है. राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के जीवन दर्शन पर तुलसी साहित्य का प्रभाव सुविदित है. वास्तव में भारत में जनतंत्र की ग्राह्यता तथा इसकी सफलता के आधारभूत कारणों में रामचरितमानस जैसा जनसाहित्य ही है. मानस में वर्णित राजव्यवस्था का स्वरूप भले ही राजतंत्रीय हो लेकिन इसकी आत्मा पूर्णरूपेण जनतांत्रिक है. राम भले ही राजा हैं लेकिन उनका व्यवहार दूसरों के साथ हमेश सखा भाव का है, चाहे वह शरणागत राक्षस विभीषण हो, कृपाभाजन वानर सुग्रीव हो या वनवासी निषाद. "अधम ते अधम अधम अति नारी" शबरी को वह माता के रूप में देखते है. गिद्ध जटायु का वह पुत्रवत अंतिम संस्कार करते हैं. राम की दृष्टि समदर्शी है. लोक व्यवहार में वह किसी भी तरह की असमानता स्वीकार नहीं करते हैं. शबरी को संबोधित करते हुए वह कहते हैं कि जाति, पाँति, कुल, धर्म, बड़ाई, धन, बल , कुटुम्ब, गुण और चतुरता - इन सबके होने पर भी भक्ति भाव से रहित मनुष्य कैसा लागता है जैसे जलहीन बदल दिखाई पड़ता है. वास्तव में श्रीराम समाज में व्याप्त असमानता के समस्त आधारों को अस्वीकार कर देते हैं. उनके लिये भक्ति ही प्रधान है. ऐसे ही अयोध्याकाण्ड में वसिष्ठ श्री राम को सलाह देते हैं कि पहले भरत की विनती सुनिए, फ़िर उसपर विचार कीजिए. तब साधुमत, लोकमत, राजनीति और वेदों का निचोड़ निकालकर वैसा ही कीजिए. यह निर्णय लेने की सर्वाधिक लोकतांत्रिक प्रक्रिया है. इस तरह की प्रक्रिया किसी भी तरह के अधिनायकवादी सोच का सशक्त प्रतिकार है. यह प्रक्रिया लोकमत को परिमार्जित कर उसे लोकहित में परिवर्तित करती है. उत्तरकाण्ड में वर्णित संभाषण में श्रीराम के वचन भी जनतांत्रिक भावना की पराकाष्टा है. इसमें श्रीराम कहते हैं कि यह बात मैं ह्रदय में कुछ ममता लाकर नहीं कहता हूँ. न अनीति की बात कहता हूँ और न इसमें कुछ प्रभुता ही है . इसलिए मेरी बातों को सुन लो और यदि तुम्हें अच्छी लगे तो उसके अनुसार करो. वही मेरा सेवक है और वही प्रियतम है, जो मेरे आज्ञा माने. हे भाई ! यदि मैं कुछ अनीति की बात कहूँ तो भय भुलाकर मुझे रोक देना. यह वचन संप्रभु नृप के हैं जो परमब्रह्म विष्णु के अवतार हैं. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का इससे स्पष्ट घोषणा क्या हो सकती है! रामचरितमानस का प्रत्येक अंश वास्तव में श्रेष्ठतम जनतांत्रिक चेतना से अनुप्रमाणित है. भारतीयों ने पीढ़ियों से इस महाकाव्य का अध्ययन और अनुशीलन कर इन सिद्धांतों को अंगीकार कर लिया है. रामचरितमानस भारतीय जनतंत्र का प्रबल स्तम्भ है जिसकी वजह से भारत में जनतंत्र न  सिर्फ़ टिका है बल्कि नित नई ऊँचाईयों को छू रहा है.

रविवार, 14 अगस्त 2011

जिसे नहीं गवारा मेरा गुलाम होना

गुलाम मैं भी हूँ 
गुलाम तुम भी हो
मजे में हो तुम
लेकिन मैं हूँ बेचैन 
जिसका तुम्हें भान भी नहीं
उसके मारे मैं हूँ परेशान 
ऐसा क्यों है
शायद तुम पड़े हो जन्म से ही 
ऐसी कालकोठरी  में 
जिसमें कोई रोशनदान भी नहीं
मैं जहाँ हूँ नज़रबंद 
वहाँ खुली खिड़कियाँ तो हैं ही सही 
रोशनी तो कभी न कभी तुमने भी देखी होगी
लेकिन तुमने झूठला दिया होगा देखे का
बहला लिया होगा अपने-आप को 
समझ कर उसे छलावा 
दिमाग पर जोर डालना 
शायद नहीं  तुम्हारी फितरत 
लेकिन मेरे मन का एक कोना है
जिसे नहीं गवारा 
मेरा गुलाम होना

- नीरज कुमार झा 

शनिवार, 13 अगस्त 2011

जन-जन संप्रभु

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यह जनतंत्र है
यहाँ कोई राजा नहीं है 
कोई प्रजा भी नहीं
हम सभी नागरिक हैं
और तय है कि
हम चुनते हैं अपने प्रतिनिधि
स्वामी नहीं
उचित तो यह भी नहीं कि 
कहा जाए किसी को शासक या प्रशासक 
जीविका चलती उनकी 
हमारे अंशदान से 
मात्र  हैं  वे प्रबंधक 
हमारे सामूहिक हितों के 
यह जनतंत्र है
और हर जन संप्रभु है
बंदिशें हैं और रहें 
लेकिन सिर्फ इसलिए कि
हमारी अनधीनता नहीं बदले अराजकता में
बंदिशों का है लक्ष्य मात्र एक
कि हो हमारी स्वतंत्रता अधिकतम 
और प्रतिबंध रहे हम पर कम से कम
हर जन है बड़ा 
तंत्र के किसी भी अंग
या उसके किसी कर्मी से
याद रहे हमेशा कि
यह जनतंत्र है
और जन-जन संप्रभु है
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नीरज कुमार झा
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मालिक मेरे कुत्ताजी

चोरी की बढ़ती वारदातों को लेकर मैं परेशान था
दोस्तों ने सलाह दी 
मैंने एक कुत्ता पाल लिया 
शुरू में उसने कुछ संदेहास्पद लोगों को देखकर तेवर दिखाए 
लेकिन यह कुछ ही दिन चला
अब वह सारे रूआब मुझ पर ही झाड़ता है 
वह मेरे बिछावन पर लेटता है 
मेरी कुर्सी  पर बैठता है
म्रेरे भोजन का बड़ा हिस्सा 
मुझसे पहले डकार जाता है
और मैं यदि विरोध करूँ  तो 
मुझ पर गुर्राता है 
मैं एक दिन पूछ ही बैठा 
मालिक तू है या मैं 
कुत्ते ने कहा 
मैं हूँ मालिक 
मैं हैरत में पड़ गया 
वह कैसे 
तू काम करता है 
हाँ 
मैं काम करता हूँ 
नहीं 
कौन मालिक हुआ 
तुम 
मेरा नाम सम्मान से ले 
क्या कहूँ आपको 
मालिक मेरे कुत्ताजी 
ठीक है मालिक मेरे कुत्ताजी
मैं उसके तगड़े जबड़ो से झांकते 
मजबूत दांतों को देखकर सहम गया था
खाना तो आप मेरा दिया खाते हैं 
यह तेरा भ्रम है 
कैसे 
मैं पहले खाता हूँ 
हाँ 
तू मेरा छोड़ा खाता है 
हाँ 
फिर बता कौन किसको खिलाता है 
आप मुझे खिलाते  हो 
लेकिन काम तो मैं अपना करता  हूँ 
यह भी तेरा भ्रम है 
काम भी तू मेरी वजह से कर पाता है 
वह कैसे 
मैं सुबह-सुबह तुझ पर भूँकता हूँ 
तभी तो तू काम पर जाता है 
और काम कर पाता है 
हाँ मालिक मेरे कुत्ता जी 
मेरे पास कोई चारा नहीं था 
कुछ दिनों के बाद तो उसने अति कर दी 
उसने सर पर चमकने वाला सीसा बाँध लिया 
और चलते वक्त सीटी बजाने लगा 
अब यह क्या है 
समझा नहीं 
सिटी जैसे मैं बजाऊँ तू जहाँ  का तहाँ  खड़ा हो जा 
संडास भी जा रहा तो बिलकुल ठहर जा 
कुछ भी करूँगा तो मैं पहले करूँगा  
जब तक मैं कुछ करूँगा
तू कुछ नहीं करेगा और चुपचाप रहेगा 
मेरी अक्ल अब ठिकाने लग चुकी थी 
मालिक मेरे कुत्ताजी 
कहकर मैंने सलाम बजाया 
शाबाश 
शाबाशी पा 
सच कहूँ मुझे अच्छा लगा 
मजे से मैं 
घर के कोने में उसका  जूठन खाने बैठ गया

- नीरज कुमार झा 





गुरुवार, 4 अगस्त 2011

रिश्ते कुछ ही चलते जन्म भर

मैं रोया हूँ कई बार
टूटे रिश्तों को लेकर
हुआ हूँ रूआंसा कई बार
भांप कर
टूट जाने वाले रिश्तों को लेकर
पहले पता नहीं था
रिश्ता चाहे कैसा भी हो
रक्त या सम्बन्ध का
दोस्ती का या पेशे का
रिश्तों की जमीन होती है
जो हो जाती है बंजर अधिकतर
एक समय के बाद
और सूख जाते हैं रिश्तें
कुछ समय के बाद
रिश्तों की उम्र होती है
रिश्ते कुछ ही चलते हैं जीवन भर
हर रिश्तों को सहेजना नहीं होता है संभव
हर एक के लिए


- नीरज कुमार झा