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रविवार, 15 नवंबर 2009

गुलामी

आज़ादी में होती हज़ार दरारें,
गुलामी बिलकुल ठोस  होती है.
आज़ादखयाली में शंशय होते,
गुलामी की सोच सपाट होती है.
सवाल ही सवाल आज़ाद मन में,
बेहाल रहते जवाब ढूढ़ने में.
गुलाम उठाते सवाल,
सिर्फ़ सवालों पर.
लगे रहते रटने में
मौजूद जवाबों को.
नए सवालों से उन्हें है चिढ़.
कितना याद करें ये भाई!
सवाल कुछ भी हो
जवाब उनके तय हैं.
उतावली में वे उलटी करते हैं.
जवाब नहीं यह सवाल का,
सुन वे झल्लाते हैं.
उनके पास है पक्की फेहरिस्त
सवालों और उनके जवाबों के.
वे मानते हैं -
दीगर सवाल फितूर हैं बीमार दिमागों के.
आज़ादों को वे सिरफिरा समझते. 
आज़ादी से आज़ादी को
मानते वे आज़ादी. 
सत्ता के सहूलियत की बातें
उनकी तालीम है. 
हुक्मरानों के हुक्म ही
उनके लिये इल्म है. 
खुदगर्जी इनका ईमान,
ओहदेदार इनका खुदा है. 
बाँकी बातें बेमानी,
और लोग बेमतलब हैं.
इनसे पार पाना कठिन,
क्योंकि गुलाम को गुलाम,
और मूर्ख को मूर्ख होने का
अहसास नहीं होता है. 

- नीरज कुमार झा

मंगलवार, 10 नवंबर 2009

बिग बाँस सीज़न थ्री

सबसे ज़्यादा अखरती है इस तरह के शो की सफलता. टेलीविजन से चिपके रहने वालों में ज्यादातर मध्यवर्ग के एकाकी परिवार हैं - समाज तथा परिवेश से कटे हुए. उनमें से बड़ी संख्या उन परिवारों की है जो साधनहीन हैं तथा सार्वजनिक जीवन के घटियापन के कारण अपमान तथा असुरक्षा की जिंदगी जीने को बाध्य हैं. मध्यवर्ग के सामान्य व्यक्तियों का बौद्धिक स्तर भी अमानक शिक्षाप्रणाली के कारण निम्नस्तरीय है और  उनकी बौद्धिक अभिरुचियाँ अल्प हैं. ऐसे में टेलीविजन के स्तरहीन कार्यक्रम ही अधिकतर उन्हें आकर्षित करते हैं. इस तरह के फूहड़ कार्यक्रमों की सफलता जीवन के खोखलेपन और उच्चतर मूल्यों से अलगाव का प्रतिबिम्बन करती है.
नीरज कुमार झा, "ऊँचे लोग नीची बातें," बी पी एन टुडे, ग्वालियर,  २/२, १६ नवम्बर  २००९, पृ.  ५८/५८-५९.

भीड़

जब आप बनते हैं भीड़
खो देते हैं आप अपना विवेक 
विलीन हो जाता है आपका व्यक्तित्व 
जन्मते हैं आप एक महाकाय 
जिसका सर नहीं होता
आँख-कान कुछ नहीं होता 
होती हैं सिर्फ़ भुजाएँ
जो मचा सकती हैं 
केवल तबाही

जब आप होते हैं भीड़
आप नहीं रह जाते एक जवाबदेह आदमी
आप को हर लेता है वह कबंध
सर्वभक्षण ही है जिसके होने का अंत
भीड़ की मानसिकता खींचती है
आपके अन्दर बैठा बर्बर कुलांचे भरता है
सभ्यता के उत्तरदायित्व का वज़न 
वह उतार फेंकना चाहता है

जब आप बने होते हैं भीड़
उस ज़गह पर उस समय के लिये
आप धकेल देते हैं सभ्यता को वापस 
उस जगह पर जहाँ से  बढ़ी है 
यह सहस्राब्दियों से रेंग-रेंग कर 
आज तक

जब आप बनते हैं भीड़
आप नहीं रह जाते हैं एक नागरिक 
जिसके हैं अधिकार और दायित्व 
आप खोते हैं अपनी आज़ादी
आज़ादी जो मिली है 
मात्र पीढ़ी-दो-पीढ़ी पीछे 
और आज भी है आधी-अधूरी अनिश्चित 
आज़ादी मिलती है मुश्किल से 
खोने में नहीं लगता पल भी
आज़ादी का घर कब बन जाता कारा
उसका अहसास भी नहीं होता

वे आज भी सक्रिय हैं
वह मानसिकता आज भी जीवित है
जिससे पीड़ित रही है मानवता 
जाने कब से 
वे बैठे हैं बिलकुल ताक में 
बनते हैं आप भीड़
नहीं अपने-आप या अनायास 
वे गढ़ते हैं आपके मन को धीरे-धीरे
बदलते हैं आपके मस्तिष्क के ऊतकों को बारूद में 
जिसे वे फोड़ सकें चाहे जैसे जब भी
वे नफ़रत करते हैं आपसे 
भले ही देते दुहाई आपके नाम की

जब आप बनते हैं भीड़
बन जाते हैं औजार 
उन गिरोहबंद लोगों के 
जो आपको कुचलने में लगे हैं 
हरण करते वे आपकी मर्यादा का
वे चुराते आपके होने को
वे ले लेते हैं वह सब कुछ आप से 
जो मिली है विरासत में आपको
मानवीयता के उस अनवरत संघर्ष से 
जो चल रही है आदम युग से 
और आज भी जारी है 

- नीरज कुमार झा

शुक्रवार, 6 नवंबर 2009

ख़ामोश शहर


शहर में शोर बहुत है
मगर  शहर ख़ामोश है
ख़ामोश है शहर लेकिन 
ख़ामोशी आवाजें लगाती हैं
सुनते नहीं लोग
क्योंकि शहर में बहुत शोर है


- नीरज कुमार झा


रविवार, 1 नवंबर 2009

तिलिस्म विज्ञापन का

विज्ञापन का तिलिस्म शिशुओं की मासूमियत को, स्त्रियों की गरिमा को, युवाओं की ऊर्जा को लीले जा रहा है. सबसे बड़ी विडम्बना यह है कि जनतंत्र की तरह पूंजीवाद या उदारवाद का भी कोई विकल्प नहीं है. पूंजीवाद का इलाज राजकीय नियंत्रण भी नहीं है, जैसा कि सरकार के तथा उससे जुड़े लोग पैरोकारी करते हैं. वे प्राधिकारवाद के बेईमान पैरोकार हैं. इसका उपचार सांस्कृतिक तथा आध्यात्मिक है.

यह उपचार आवश्यकताओं को सीमित करना है. भारतीय परंपरा में उपवास, त्याग तथा दान की परंपरा है. भारतीय दर्शन किसी तरह की आसक्ति का भी निषेध करता है. ऐसा नहीं है कि भारतीय परम्परा में काम या अर्थ उपेक्षित है, लेकिन वे धर्म की मर्यादा से बंधे हैं. 

आधुनिक युग में जनतंत्र तथा पूंजीवाद को आध्यात्मिक स्वरूप देने का सिद्धांत गांधी जी ने न सिर्फ़ भली-भांति प्रतिपादित किया है बल्कि व्यवहार में लागू कर दिखाया है. पूंजीवाद आजकल कारपोरेट सोशल रिस्पांसिबिलिटी की बातें कर रहा है. इस तरह की समझ को भारत की सांस्कृतिक तथा आध्यात्मिक परम्पराओं से जोड़ने की है. 

(नीरज कुमार झा, " तिलिस्म विज्ञापन का ," बी पी एन टुडे, ग्वालियर, १२/१, १६ सितम्बर २००९, पृ. १३/११-१३.)

शुक्रवार, 30 अक्टूबर 2009

कृत्रिम


कमरे के कोने में रखा है प्लास्टिक का एक गमला 
नक़ली मिट्टी में लगा है नक़ली पौधा 
फूलों पर फरफरा रही हैं कुछेक मशीनी तितलियाँ 
गमला, मिट्टी, पौधा, फूल और तितलियाँ 
उनकी असलियत घर के मालिक बताते हैं 
वैसे सभी बिलकुल असल दिखते हैं 
मैं शक की निगाहों से 
देखता हूँ पास खेलते बच्चे को 
फ़िर झटके सा अपना ही ख्याल आता है
क्या मैं भी चार्ज कर छोड़ा गया कोई मशीन हूँ 
जिसमें भर दिया गया हो अहसास अतीत के घटने का 
और बोध भविष्य के होने का
मुझे संदेह हो रहा है अपने होने पर
कहीं कृत्रिम तो नहीं है मेरी चेतना
- नीरज कुमार झा 

मंगलवार, 27 अक्टूबर 2009

अक़्ल पर पत्थर

हम मनुष्य हैं
उनकी ही तरह,
लेकिन ऐसा अहसास
सिर्फ़ आईने के सामने होता है. 
वो भी कभी-कभी.
दो पैरों पर खड़े होते,
या शरीर पर घने रोयें ही होते,
तो वैसा भी नहीं लगता.
जो लगता है,
वह है कि हम बैल हैं,
कोल्हू में जुते 
गोल-गोल घूमते हैं.
कभी लगता है कि 
हम कुत्ते हैं,
भौं-भौं करते हैं,
पूँछ हिलाते हैं,
कहने पर काट भी खाते हैं.
और भी बहुत कुछ होना लगता है,
जैसे कि सूअर, कौआ या फ़िर गधा.
काश वही होते जो लगते हैं!
कुत्ते होते तो कुत्तेपन के प्रति बेईमान तो होते.
बैल ही होते तो बेचारगी इतनी बोझिल तो होती.
इसी ऊहापोह में मिले मनीषी कुछ एक दिन.
हमने बताई अपनी व्यथा.
आदमी तो हैं,
लेकिन आदमी होना महसूस नहीं होता.
उन्होंने कहा धर्म-कर्म ही मानवता.
कर्त्तव्य में छिपा अधिकार.
कर्म करो,
अपना धर्म निबाहो,
आदमियत क्या,
ईश्वर पा जाओगे.
मनीषी वचनों से मिटी नहीं हमारी शंका.
जुते तो रहते हैं,
भूंकते भी हैं,
काटते भी हैं.
सब कुछ तो करते हैं.
करें भी कैसे नहीं?
नहीं कह भी तो नहीं सकते.
यूँ तो पुचकारे भी जाते हैं,
कभी दुलारे भी जाते हैं.
वैसे डांटे जायेंगे,
लात खायेंगे,
डंडे खायेंगे.
बाद में उन्हीं में से एक
पास हमारे वह ही आया.
अलग ले जा उसने कहा,
शंकाएँ तुम्हारी जायज.
धर्म-कर्म, नीति-अनीति,
सब भुलावें हैं.
क्रांति करो, बदलो समाज,
अमानुषता से तभी मिलेगा छुटकारा.
बात मेरे समझ में आयी.
वह लात, जूते, दुत्कार ही नहीं,
हमें गोली भी खिलवाना चाहता है.
उनकी बातों से,
अपनी बीती से,
बात समझ में आने लगी है.
हम करते हैं वही
जो हमसे करवाया जाता है.
ग़लत यदि कुछ है तो
वही हमसे करवाते हैं.
ऊपर से तोहमत भी लगाते हैं.
फ़िर कहते हैं
तुम हो कर्तव्यच्युत, कर्महीन, अधर्मी,
हो इसलिये मानवता से वंचित.
उन्हीं में से कुछ, उन जैसे ही,
पढ़े-लिखे प्रशिक्षित विदेशों से भी,
करते हैं वही सब जो उनके जैसे करते हैं.
लेकिन ये भी देते हमें ही धिक्कार
क्रांति की क्षमता नहीं तुममें,
इसलिये हो कुचले, दमित-शोषित.
क्या कहें उन्हें?
क्रांति कर-कर दुनियाँ थकी.
मिला नहीं हम जैसों को कुछ भी, कहीं भी.
वे हमें बहलाते हैं.
अपराध उनका,
दोषी हमें बताते हैं.
हम भी बिना सोचे
दोषी खुद को पाते हैं.
खोये मानवता इसलिये बैठे हैं.
सिर्फ़ समझ का है फेर
उन्हें करना है अपना कर्तव्य,
जिसे वे करते नहीं.
हमें चाहिए अधिकार
जो वे हम से फुसलाये बैठे हैं.
अक़्ल पर पत्थर पड़ा हमारे,
इसलिये वे हमें ठगे जाते हैं.


- नीरज कुमार झा