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शनिवार, 29 मई 2010

सच जीतता है क्योंकि ...

सच जीतता है,
यह जानकर
निश्चिन्त हो जाना
झूठ की जीत का
रास्ता साफ़ करना है। 
सच जीतता है
नहीं अपने आप। 
सच में नहीं है 
चमत्कार की शक्ति। 
सच जीतता है
क्योंकि लोग लड़ते हैं सच के लिये,
और कर देते सब कुछ न्योछावर। 
रामायण और महाभारत
महाग्रंथो का
यही है सन्देश। 
सच की रक्षा के लिये  
धरा पर आना पड़ा स्वयं ईश को। 
सच की  राह होती यदि आसान
तो नहीं करना होता क्रंदन
भगवान को
बैठ निकट मूर्च्छित लक्ष्मण  के। 
नहीं उठा रथ का टूटा पहिया रण में
दौड़ना पड़ता आक्रोशित कृष्ण को। 
सच माँगता है अनवरत संघर्ष,
निरंतर सतर्कता,
और सबसे ऊपर
प्रखर विवेक, 
क्योंकि झूठ बिलकुल सच की तरह होता है;
झूठ जीतता भी है,
और सच के नाम पर राज भी करता है। 
जीते झूठ को सच मान लेना
हारे सच को दफ़न करना है। 
सच की पहचान
सच के जीत की 
पहली शर्त है। 

- नीरज कुमार झा

गुरुवार, 27 मई 2010

क्योंकि वह मरी नहीं है

जब रात गहराती है
मेरी अंतरात्मा
सामने आ खड़ी होती है
कपड़े हटाती है
दिखाती है अपना शरीर
रिसते घावों से भरा
मेरी भावशून्य आँखों को देख
बिलखने लगती है
वह नहीं जाती
आँखों की भावशून्यता के परे
समझती  नहीं
चालाकी करना
और अवसर पा  आघात करना
नहीं है मेरा स्वभाव
सच और संवेदना के साथ चलना
दलदल से होकर गुजरना है
सच मेरे लिये जीत के लिये भी नहीं है
सच मेरा स्वभाव है
इसमें कोई दूसरा भाव नहीं है
अंतरात्मा मेरी फ़िर भी रूग्ण है
क्योंकि अकेला बेसहारा सच
अधिकतर बेजार रहता है
वह नहीं देखती
कि दुनियाँ  में क्या हो रहा है
सिरफिरे शतरंज खेल रहे हैं
और हम बने हैं मुहरें
चालें हैं उनकी अज़ब-गज़ब की 
मची है अफ़रा-तफ़री चारों ओर
वह नहीं देखती हर जगह
बेघर भटकती परित्यक्त अंतरात्माओं को
पटी धरती मरी अंतरात्माओं से
वह अपनी फटेहाली और बीमारी को लेकर रोती है
नहीं समझती कि मैंने उसे छोड़ा नहीं है
उसको नहीं किया है  बेघर
उसका करता हूँ आदर
वह फ़िर आएगी और रोएगी
क्योंकि वह मरी नहीं है

- नीरज कुमार झा 




मंगलवार, 25 मई 2010

विकास का पैमाना

विकास के कई मानदण्ड हैं
सकल घरेलू उत्पाद
सकल राष्ट्रीय आय
प्रति व्यक्ति आय
मानव विकास सूचकांक
धारणीय विकास
और न जाने क्या-क्या
देश की ताक़त भी मापी जाती है
महाशक्ति
कामचलाऊ शक्ति
बिना काम की शक्ति
और सबसे ऊपर
देशों का भी श्रेणीकरण है
सफल और विफल
मुझ जैसे आम जन के लिये
विकास का सबसे बड़ा पैमाना
हँसते-खिलखिलाते बच्चे हैं
देश सफल वही है
जहाँ बच्चों के मन में  उमंग
और होंठों पे उनके मुस्कान है
मासूमियत का राज जहाँ
देशों का सिरमौर वही है

- नीरज कुमार झा

रविवार, 23 मई 2010

उनींदा

दिन में आवाजों की ख़ामोशी 
करती है बेचैन. 
रात में ख़ामोशी की आवाजें 
सोने नहीं देती. 
उनींदा आदमी
खो चुका है अपनी आवाज, 
और ख़ामोशी भी.
काश, नींद आती,
जल्दी उठता. 
संजीदा सुबह की ख़ामोशी में 
गुम हो चुकी अपनी आवाज को 
खींच लाता, 
और चीख सन्नाटे को तोड़ता. 
फ़िर पक्षियों के कलरव सुनता. 
आवाजों में उलझी ख़ामोशी  को अलग कर 
उसके साथ कुछ गुनगुनाता. 

- नीरज कुमार झा 

शुक्रवार, 21 मई 2010

अतीत का उपवन


मेरे अतीत के किसी कोने में
एक उपवन है
कोई रंग 
कोई गंध 
हल्के  से उठा 
हौले हौले उड़ा
मुझे वहाँ ले जाती है
वहाँ के कुछ पल
आँखों में सुख के 
मोती बन जातें हैं

- नीरज कुमार झा

रविवार, 16 मई 2010

समझ की समझ कोई समझे तो सही

विद्यालयों और बौद्धिक जगत में
सीखने की जगह
अधिकतर लोग
नहीं  सीखने का रियाज करते हैं, 
और नासमझी के तमगे को
सीने पर लगा कर घूमते हैं। 
समझ की नैसर्गिक क्षमता पर
बेवकूफी की मोटी परत जमा
अपने को ये बौद्धिक मानते हैं,
और जन उद्धार का बोझ
सर पर लेकर घूमते हैं। 
जो विचारधारा इनके पाले आयी
उसका नाम हमेशा ये जपते हैं,
और रटे जुमले जहाँ मौक़ा लगे
बिना प्रसंग दुहराते हैं। 
बेवकूफ़ी की यह विचारधारा
बेजार कर रही खुद उन्हें
और औरों को भी,
लेकिन वे नहीं समझते। 
काश, वे समझते कि
विचारधारा होनी चाहिए
एक काम का औजार,
या औषधि,
या एक बीज जिससे उगे वृक्ष,
या बूँद जो  बूँदों से मिल बन जाए धारा। 
यह नहीं हो सकती गाने-बजाने की चीज,
या फ़िर गुप्त ज्ञान,
या कोई बाजीगरी,
या जिसका बखान कर,
किया जाए गुमान,
या कोई ऐसा महान अभियान
जिसका सच्चाई में हो ही न सके सामना,
या दैत्याकार तिलस्म
जो निगल ले अनगिन जन को,
और अंत में वही  ढाक के तीन पात। 
वे नहीं जोड़ते अपने तथाकथित  ज्ञान को
स्वयं से या अपने परिवेश से। 
जो उनके खोपड़े में घुस गया
उस महाज्ञान के शब्दजाल से
होगा चमत्कार,
इस आस्था के साथ
ये माला फेर रहे है। 
अनास्थावादी पिंजरे में फुदक फुदक
तोते की तरह क्या बक रहे,
खुद नहीं समझ रहे हैं। 
तालीम से पहले
तालीम का सबब
कोई समझे तो सही! 
समझ की समझ
कोई समझे तो सही! 

- नीरज कुमार झा

मंगलवार, 11 मई 2010

ट्विंकल ट्विंकल लिटल स्टार (दो अनुवाद)

१.
झिलमिल झिलमिल नन्हें तारे
मैं सोचूँ तुम हो क्या प्यारे
दुनिया में उतनी ऊँचाई पर
लगते नभ में  हीरे की तरह
२.
झिलमिल झिलमिल नन्हें तारे
नभ में लगते कितने प्यारे
दुनिया के इतने ऊपर
जगमग जगमग हीरे की तरह

शनिवार, 8 मई 2010

तुम जीतो

तुम जीतो
मैं तुम्हारे साथ हूँ
जीत कर नहीं होगी
तुम उन जैसी
यह मुझे पता है

लेकिन जीत से
यदि सिर्फ़ जगहें बदलती हैं
तो फ़िर क्या फ़ायदा
हरा भी दिया तुमने उसे
बना लिया अपना दास
जितना चाहा जैसे चाहा लूटा
या   कर खड़ा बाजार में बेच दिया
तो फ़िर क्या बदला तुमने
बात नहीं जय की
या पराजय की
क्या नहीं बना सकती तुम दुनियाँ ऐसी
जिसमें नहीं हो हार या जीत
या हो सबकी ही जीत

तुम जीतो
मैं भी सेनानी तुम्हारा
लेकिन क्यों न हो तुम्हारी ऐसी जीत
जो बदल दे जय-पराजय की ही रीत

तुम जीतोगी
मैं जानता हूँ
चाहो तो तुम पा सकती हो
जीत पर भी जीत
सिर्फ़ तुम ही पा सकती हो
जीत जीत पर
जीत हार पर

तुम जीतोगी तो ऐसा ही होगा
तुम जीतोगी ही
जीतेंगे वो भी जो हारेंगे
तुम जीतोगी जीत को
वो हारेंगे हार को

तुम जीतो
मैं गर्वित हूँ
हो सेनानी उस अभियान का
जिसमें जीती जाएगी जीत
और हारी जाएगी हार
- नीरज कुमार झा 

मंगलवार, 4 मई 2010

हमारे जो चले गए

हमारे जो चले गए
इतिहास क्या
अतीत भी न बन पाए
हमने उनकी यादों को
दफ़न किया ऐसे
जहन में  हमारी
वे झाँक भी न पाए
विरासतें रही होंगी उनकी
हम वारिसों की बेपरवाही से
गुम हो चुके वे भी  कहीं
छोड़ो उनकी जो चले गए
हमारा ही  क्या
होकर भी हम कहाँ हैं
अतीत क्या और इतिहास क्या
हमारा तो वर्तमान ही नहीं

- नीरज कुमार झा