विद्यालयों और बौद्धिक जगत में
सीखने की जगह
अधिकतर लोग
नहीं सीखने का रियाज करते हैं,
और नासमझी के तमगे को
सीने पर लगा कर घूमते हैं।
समझ की नैसर्गिक क्षमता पर
बेवकूफी की मोटी परत जमा
अपने को ये बौद्धिक मानते हैं,
और जन उद्धार का बोझ
सर पर लेकर घूमते हैं।
जो विचारधारा इनके पाले आयी
उसका नाम हमेशा ये जपते हैं,
और रटे जुमले जहाँ मौक़ा लगे
बिना प्रसंग दुहराते हैं।
बेवकूफ़ी की यह विचारधारा
बेजार कर रही खुद उन्हें
और औरों को भी,
लेकिन वे नहीं समझते।
काश, वे समझते कि
विचारधारा होनी चाहिए
एक काम का औजार,
या औषधि,
या एक बीज जिससे उगे वृक्ष,
या बूँद जो बूँदों से मिल बन जाए धारा।
यह नहीं हो सकती गाने-बजाने की चीज,
या फ़िर गुप्त ज्ञान,
या कोई बाजीगरी,
या जिसका बखान कर,
किया जाए गुमान,
या कोई ऐसा महान अभियान
जिसका सच्चाई में हो ही न सके सामना,
या दैत्याकार तिलस्म
जो निगल ले अनगिन जन को,
और अंत में वही ढाक के तीन पात।
वे नहीं जोड़ते अपने तथाकथित ज्ञान को
स्वयं से या अपने परिवेश से।
जो उनके खोपड़े में घुस गया
उस महाज्ञान के शब्दजाल से
होगा चमत्कार,
इस आस्था के साथ
ये माला फेर रहे है।
अनास्थावादी पिंजरे में फुदक फुदक
तोते की तरह क्या बक रहे,
खुद नहीं समझ रहे हैं।
तालीम से पहले
तालीम का सबब
कोई समझे तो सही!
समझ की समझ
कोई समझे तो सही!
- नीरज कुमार झा
यही तो बात है ... शिक्षा बस किताबों और डिग्री तक सिमट कर रह गयी है ... बढ़िया रचना !
जवाब देंहटाएंbadi hi sateek baat kahi sir aapne
जवाब देंहटाएंकोई विचार-प्रधान कविता भी इतनी असरदार हो सकती है, इसका उदाहरण है यह कविता। बधाई!
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