दिन में आवाजों की ख़ामोशी
करती है बेचैन.
रात में ख़ामोशी की आवाजें
सोने नहीं देती.
उनींदा आदमी
खो चुका है अपनी आवाज,
और ख़ामोशी भी.
काश, नींद आती,
जल्दी उठता.
संजीदा सुबह की ख़ामोशी में
गुम हो चुकी अपनी आवाज को
खींच लाता,
और चीख सन्नाटे को तोड़ता.
और चीख सन्नाटे को तोड़ता.
फ़िर पक्षियों के कलरव सुनता.
आवाजों में उलझी ख़ामोशी को अलग कर
उसके साथ कुछ गुनगुनाता.
- नीरज कुमार झा
सुन्दर रचना है बधाई।
जवाब देंहटाएंpehli do panktiyan hi sab kuch baya kar gayi bahut khoob...
जवाब देंहटाएंNeeraj ji, ab to aadat daal hi lijiye, jaise-taise sone ki.
जवाब देंहटाएंउम्दा रचना.....ये कविता चर्चा मंच पर है
जवाब देंहटाएंhttp://charchamanch.blogspot.com/2010/05/163.html
आज की ज़िन्दगी पर बहुत सुन्दर रचना ...बधाई !
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