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सोमवार, 27 नवंबर 2023

Let the Arguments Win

Everyone thinks that they are wise and suspects most others being idiots. The relevant fact is that we all suffer idiocies. Each, therefore, must contest others' ideas respectfully and find out the true worth of ideas no matter who holds them. Everyone fears appearing dumb but ironically does not bother their sufferings caused by the prevalence of idiotic ways. People must cultivate the art of arguing with such finesse that nobody looks losing or winning an argument. We must always remember that we are not arguing against each other but for the collective good. Let the good arguments win.

Niraj Kumar Jha

रविवार, 26 नवंबर 2023

विश्वतंत्र

विश्व तंत्र में यह युगांतकारी संक्रमण का दौर है। पिछली सदियों के शक्तिशाली राजनीतिक निकायों का पराभव और नवीन शक्तियों का उद्भव हो रहा है। इससे दुनिया के भूराजनीतिक समीकरण बदल रहे हैं। चूँकि दुनिया के राजनीतिक कार्यवाह इस असामान्य परिस्थिति से अवगत हैं, वे अपनी स्थिति को संभालने या सुधारने में लगे हैं। जिन कारकों को वे दृष्टिगत कर रहे हैं, उनमें नवीन प्रौद्योगोकियों के दूरगामी प्रभाव अज्ञात हैं। एक स्थायी नए विश्व तंत्र की संरचना अभी बनने के दौर में है और इसका अंतिम स्वरूप आने में समय लगेगा।
 
इन बनते समीकरणों में भारत की स्थिति पूर्व की तुलना में काफी सुदृढ़ है। इस संदर्भ में सामान्य नागरिकों को दुनिया के घटनाक्रमों को समझने और उनपर चर्चा करने की जरूरत है। जनतान्त्रिक देशों की राजनीतिक संस्कृति में नागरिकों की भिज्ञता और चेतना की भूमिका निर्णायक होती है, जो राजनीतिक कार्यवाहों के क्रिया-कलापों की दशा और दिशा को निर्धारित करती है। यदि नागरिकों का राजनीतिक ज्ञान और सरोकार उच्चस्तरीय होगा तो अवश्य ही भारत अग्रणी देशों में अपना स्थान और ऊँचा कर पाएगा और सामान्य नागरिकों की स्थिति भी और अच्छी हो सकेगी।
 
नीरज कुमार झा

शनिवार, 25 नवंबर 2023

Power Redefined

For a long time, as I know, people have seen power as the prevailing will in any demographic setting. Tragically, the definition determines practices. I propose a new definition. Power is the ability to work for a worthwhile purpose in the best possible way. This is how great organisations work today and empower everyone to whom they relate. 

Niraj Kumar Jha 


सभ्यताओं का संघर्ष और विश्वविद्यालय

औपनिवेशिक शिक्षाप्रणाली का लक्ष्य स्पष्ट था। सीमित लोगों को सीमित बौद्धिक कौशल प्रदान कर औपनिवेशिक शासन हेतु निष्ठावान कार्मिक प्राप्त किए जाएँ  और उनको तथा उनके द्वारा अन्य लोगों को मानसिक  दास बनाया जाए। इस योजना के  परिणामस्वरूप लोगों ने आधिपत्य के कुचक्र को उद्धार के यंत्र के रूप में देखा। 

विउपनिवेशीकरण के पश्चात उपनिवेशों के लिए  पूर्व में संघर्ष और युद्धरत देशों में सामूहिक समझ विकसित हुई कि  ऐसी अंतरराष्ट्रीय प्रणाली निर्मित और संचालित की  जाए जो स्वचालित रूप से उन देशों की प्रभुता और लाभों को निरंतर रख सके। 

इस व्यवस्था का एक प्रमुख तंत्र पाश्चात्य जगत के शिक्षण संस्थान हैं। ये वही काम वैश्विक स्तर पर आपसी सहयोग से  कर रहे हैं जो उनके शिक्षण संस्थान औपनिवेशिक दौर  में कर रहे थे। 

उनका इंद्रजाल ऐसा है कि वे ज्ञानमीमांसा के स्वामी बने हुए हैं और शेष को ज्ञानकर्मी बनाए रखा है। उनके लिए ज्ञान शक्ति है, शेष के लिए शक्ति ज्ञान है। वे पूरे विश्व की शक्तियों को वैधता इस आधार पर प्रदान करते हैं कि वे  उनके द्वारा सृजित योजनाओं के कार्यवाह हैं। उनके द्वारा शेष जन के लिए मेधा का प्रयोग वर्जित रखा गया है। 

यहाँ इस वक्तव्य, जिसमें  सामान्यीकरण अनुपात से अधिक है,  का उद्देश्य पाश्चात्य शिक्षण व्यवस्था का विरोध करना नहीं है, वरन उनसे संदर्भित तथ्य को सीखने की आवश्यकता को रेखांकित करना है। हम अवश्य विश्वबंधुत्व के लिए पूरी निष्ठा के साथ प्रयास करें लेकिन जो घात लगए बैठे हैं, उनसे अपना  बचाव भी करें।  यहाँ यह समझना आवश्यक है, जैसा कि मैंने कृत्रिम बुद्धि के बढ़ती क्षमता के संदर्भ में लिखा है,  कि दुनिया में सभ्यताओं के अविराम संघर्ष में भी विश्वविद्यालयों की भूमिका रणनीतिक है। कहीं भी भवनों को खड़ा देना, ऐसी ही लोगों को इकट्ठा कर देना, और एक-दो मनभावन वाक्यों को उसका ध्येय निरूपित कर देने में कोई गंभीर उद्देश्य परिलक्षित कर पाना दुष्कर होता है। 

नीरज कुमार झा 

गुरुवार, 23 नवंबर 2023

Political Epistemology

Generally, God-fearing, law-abiding, and moralistic commoners are at the receiving end of political-economic activism and redressals. There are smarter folks who beat the system without violating the laws and there are people who defeat the system without a care for anything. Making the arrangement favourable to the gentle citizens is the real challenge. Minimalism and the minimum with maximum accountability are the ways to the objective. Ironically, everyone sees the redemption of their beings in maximum collectivism. People need to see the political epistemology and practice with clear eyes.


Niraj Kumar Jha

Digital Civicism

Social media is ubiquitous and engages more people for more time and yet it does not have the character of mass media, though it carries all the contents of mass media. It is either curated or customised by the interplay of participants (Here, a user is not only a user but a participant.) and AI. Only a viral piece has the effect of earlier mass media communications and it is only occasional, not regular.
 
It has pros and cons, but it makes it necessary for the commoners to remain connected with family, friends, and colleagues and share pieces of information relevant to the targeted people. At the same time, it is also advisable not to share any piece of information not relevant to a person or a group.
 
Sharing any idea must have a positive purpose. People are already stressed by the deluge of irrelevant but emotionally burdensome pieces of information. One must be circumspect in this respect. I think it is a vital digital civicism.

Niraj Kumar Jha

बुधवार, 22 नवंबर 2023

ज्ञान शक्ति और विश्वविद्यालय

पुरानी समझ है कि ज्ञान शक्ति है। आज के दौर का सबसे बड़ा सच यह है कि ज्ञान की शक्ति अत्यधिक बढ़ चुकी है और बढ़ रही है। पहले अधिकतर तकनीकें और उपकरण मांसपेशियों के बल को बढ़ाते थे अथवा उसका अधिक शक्तिशाली विकल्प देते थे । अब नई तकनीकें बौद्धिक क्षमता को बढ़ाते हैं और उत्तरोत्तर उसका शक्तिशाली विकल्प दे रहे हैं। अंततोगत्वा कोई भी प्रौद्योगिकी और उपकरण आमतौर पर आमजन को सशक्त बनाते हैं लेकिन इसके इस स्थिति तक इसे पहुँचने में एक अंतराल होता है। लोकहित के दृष्टिकोण से यह अवधि विपत्ति का कारण हो सकता है और सजगता की मांग करता है। इस संदर्भ में कृत्रिम बुद्धि को लेकर आम जागरूकता और सजगता की आवश्यकता आज का सर्वाधिक संवेदनशील मुद्दा है।

इस उद्देश्य से भारत में विश्वविद्यालयों की भूमिका को गंभीरता और प्रासंगिकता से युक्त करना होगा। आज की चुनौतियों का समाना करने के लिए ज्ञान संसाधन की आवश्यकता आधारभूत है। इसके उत्पादन हेतु विश्वविद्यालय सहज कार्यशाला हो सकते हैं। विशुद्ध शोधसंस्थानों अथवा प्रयोगशालाओं की तुलना में विश्वविद्यालय की विशिष्टता इसका समाज से सृजनात्मक जुड़ाव है।

इस परिदृश्य में नवीन शिक्षा नीति विश्वविद्यालयों की स्वायत्तता पर जोर देती है लेकिन लोकहित रक्षण और राष्ट्रशक्ति के विस्तार हेतु इस व्यवस्था में सतत परिमार्जन की आवश्यकता होगी। आज कृत्रिम प्रौद्योगिकी और पर्यवावरण क्षरण की चुनौतियों के बीच विश्वविद्यालयों की भूमिका रणनीतिक है और इसकी प्रभावी भूमिका का विकल्प नहीं है।

नीरज कुमार झा

सोमवार, 20 नवंबर 2023

उम्मीदें

चेहरे पे गर्द जमी है, लंबे सफर की कहानी ना पूछो
रौनक भी है, उम्मीदें सफर नहीं  जो खतम हो जाए

नीरज कुमार झा 
 


शनिवार, 18 नवंबर 2023

An Observation

Every person views a particularity differently. For a person, their viewing of a phenomenon has a unique effect. The sameness of the narrative of a particular viewed object is either an imposition, an agreement or a limitation of expressive skills/inclinations on the part of the people.  

Niraj Kumar Jha 

 AI exposes yet another old malpractice: deepfaking. 


NKJ


नकल

नाटक और दुनिया का प्रभाव उभयपक्षी है। नकल एकतरफा नहीं है। पटकथा लेखन और उसके मंचन में अत्यधिक सावधानी की आवश्यकता रहती है।

नीरज कुमार झा

संस्कृति सूत्र

सोच से दुनिया बनी
रहने से बना घर
चलने से रास्ते बने
जीने से बना जीवन
प्रयास समझ हो
समझ प्रयास हो
संस्कृति-श्रेष्ठता का 
और क्या सूत्र है

नीरज कुमार झा

सोमवार, 13 नवंबर 2023

The Predicament

Only pure selfishness and philanthropy work for the common good. By pure selfishness, I mean knowing and doing what is good for one's personal interest. An enlightened person knows that his personal interests are utterly dependent on the public good. If most people seek their personal good at the cost of the public good, nobody can be sure and secure of anything. And, life for everyone gets troublesome. Tragically, this happens in many political communities. This is the poverty of collective knowledge. Careful people must be conscious of and proactive towards knowledge. The suffering communities fail to grasp, and that is the cause of their suffering, that knowledge is about know-how for improving life. They instead think that knowing itself has some magical power for accomplishing things. They also believe that all people in individual capacities are flawed entities. People can be good only collectively. This collectivisation places some of them in superior positions vis-a-vis the rest. The crux of their faulty visioning is thus twofold: they believe and behave likewise that abstractions are superior to experiences at any time and collectives are superior to individuals. These misconceptions mutate naturally to working fundamentalism and they fanatically dismiss individual experiences and persons and taboo both their self-interests and their charitable instincts. This only leaves the vast majority at the mercy of a few and life becomes nasty, but the suffering people never realise the cause behind their predicament.

Niraj Kumar Jha

शुक्रवार, 10 नवंबर 2023

National Interest

National interest is the pivot on which everyone's personal interests rest. For a couple of decades, a large number of Indians have emerged out of abysmal poverty, and the middle class has managed to lead a comfortable life. This is a recent development after almost a millennium of dehumanised life for Indian commoners. India's fabled precolonial wealth was limited to a minuscule number of households. The current somehow livable life for the middle strata and hope for the impoverished folks come from what is now an out-of-currency acronym, LPG, and the demographic dividend that India is reaping now. The matters of concern, which nobody seems to be bothered about, are that LPG is on the back burner and demographics now may be headed downwards. This is the time for concerted efforts for maximal liberalisation of business processes, sweeping privatisations, and systematic facilitations. For working out these critical tasks, the professionalization of administration is a need of the highest order. Preliberalisation queues for rationed sugar and wheat, and beggars sitting and roaming around every pavement and street corner may not be a distant reality again.

NIraj Kumar Jha

बुधवार, 8 नवंबर 2023

Republic v. Monarchy

A monarchy and a republic are contradictory systems, and a polity may progress from a monarchy to a republic. There is nothing like an intermediate model intervening between the two, yet it is a long passage. The critical element lengthening or stretching the passage endlessly is the people. They also have to transition from passive subjecthood to proactive citizenship. The challenge is subjecthood persisting despite the formal order having transitioned from authoritarianism to democracy. The lag is caused by the very nature of the subjection, which permeates the genetic coding, psyche and culture of the people who have endured subjection for a prolonged period.

People who are chanced to have acquired citizenship spirit, need to use the formal mechanisms to the full and discover and devise means further to transform republican formalism to substantive republicanism. In this respect, the most consequential activism is in the domain of knowledge. It is proper knowledge, which alone guides public agency to the public good.

Niraj Kumar Jha

मंगलवार, 7 नवंबर 2023

Thirdworldism

The third world, as it is (not gone) and whatever it is, corresponds to an ideology too, and that is Thirdwordism. Roughly, the first world is about individualism, the second is about collectivism, and the third is about confusion. It poses solutions as problems and celebrates self-defeatism as deliverance. Its intellectual elites successfully justify their vocational compensations for being the architects of the redemptive projects, which offer only mirages to the suffering citizens.

Niraj Kumar Jha

गुरुवार, 2 नवंबर 2023

Logrithm of Democracy

Democracy is humankind's becoming, though it has yet to cover the whole of the kind. And, where people conduct themselves democratically, it needs substantialization. More concerning is the massive gap between human advancements, particularly in technologies, and democratic institutions, which remain vintage.

American Constitution began when horses offered the fastest means of travel and homing pigeons means of communication. The British evolution to democracy earlier remains, as it was, socially organic even to date. In other domains, even in the field of public administration, things have changed fundamentally. Business corporations have changed beyond recognition.

Democracy needs to be reimagined and redesigned. One of the greatest challenges of democracy is that it tends to demerit merit and prioritise opinions over expertise. The advanced democracies, therefore, disregard the democratisation of international agencies.

Niraj Kumar Jha