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शनिवार, 25 नवंबर 2023

सभ्यताओं का संघर्ष और विश्वविद्यालय

औपनिवेशिक शिक्षाप्रणाली का लक्ष्य स्पष्ट था। सीमित लोगों को सीमित बौद्धिक कौशल प्रदान कर औपनिवेशिक शासन हेतु निष्ठावान कार्मिक प्राप्त किए जाएँ  और उनको तथा उनके द्वारा अन्य लोगों को मानसिक  दास बनाया जाए। इस योजना के  परिणामस्वरूप लोगों ने आधिपत्य के कुचक्र को उद्धार के यंत्र के रूप में देखा। 

विउपनिवेशीकरण के पश्चात उपनिवेशों के लिए  पूर्व में संघर्ष और युद्धरत देशों में सामूहिक समझ विकसित हुई कि  ऐसी अंतरराष्ट्रीय प्रणाली निर्मित और संचालित की  जाए जो स्वचालित रूप से उन देशों की प्रभुता और लाभों को निरंतर रख सके। 

इस व्यवस्था का एक प्रमुख तंत्र पाश्चात्य जगत के शिक्षण संस्थान हैं। ये वही काम वैश्विक स्तर पर आपसी सहयोग से  कर रहे हैं जो उनके शिक्षण संस्थान औपनिवेशिक दौर  में कर रहे थे। 

उनका इंद्रजाल ऐसा है कि वे ज्ञानमीमांसा के स्वामी बने हुए हैं और शेष को ज्ञानकर्मी बनाए रखा है। उनके लिए ज्ञान शक्ति है, शेष के लिए शक्ति ज्ञान है। वे पूरे विश्व की शक्तियों को वैधता इस आधार पर प्रदान करते हैं कि वे  उनके द्वारा सृजित योजनाओं के कार्यवाह हैं। उनके द्वारा शेष जन के लिए मेधा का प्रयोग वर्जित रखा गया है। 

यहाँ इस वक्तव्य, जिसमें  सामान्यीकरण अनुपात से अधिक है,  का उद्देश्य पाश्चात्य शिक्षण व्यवस्था का विरोध करना नहीं है, वरन उनसे संदर्भित तथ्य को सीखने की आवश्यकता को रेखांकित करना है। हम अवश्य विश्वबंधुत्व के लिए पूरी निष्ठा के साथ प्रयास करें लेकिन जो घात लगए बैठे हैं, उनसे अपना  बचाव भी करें।  यहाँ यह समझना आवश्यक है, जैसा कि मैंने कृत्रिम बुद्धि के बढ़ती क्षमता के संदर्भ में लिखा है,  कि दुनिया में सभ्यताओं के अविराम संघर्ष में भी विश्वविद्यालयों की भूमिका रणनीतिक है। कहीं भी भवनों को खड़ा देना, ऐसी ही लोगों को इकट्ठा कर देना, और एक-दो मनभावन वाक्यों को उसका ध्येय निरूपित कर देने में कोई गंभीर उद्देश्य परिलक्षित कर पाना दुष्कर होता है। 

नीरज कुमार झा 

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