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रविवार, 23 मई 2010

उनींदा

दिन में आवाजों की ख़ामोशी 
करती है बेचैन. 
रात में ख़ामोशी की आवाजें 
सोने नहीं देती. 
उनींदा आदमी
खो चुका है अपनी आवाज, 
और ख़ामोशी भी.
काश, नींद आती,
जल्दी उठता. 
संजीदा सुबह की ख़ामोशी में 
गुम हो चुकी अपनी आवाज को 
खींच लाता, 
और चीख सन्नाटे को तोड़ता. 
फ़िर पक्षियों के कलरव सुनता. 
आवाजों में उलझी ख़ामोशी  को अलग कर 
उसके साथ कुछ गुनगुनाता. 

- नीरज कुमार झा 

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