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गुरुवार, 27 मई 2010

क्योंकि वह मरी नहीं है

जब रात गहराती है
मेरी अंतरात्मा
सामने आ खड़ी होती है
कपड़े हटाती है
दिखाती है अपना शरीर
रिसते घावों से भरा
मेरी भावशून्य आँखों को देख
बिलखने लगती है
वह नहीं जाती
आँखों की भावशून्यता के परे
समझती  नहीं
चालाकी करना
और अवसर पा  आघात करना
नहीं है मेरा स्वभाव
सच और संवेदना के साथ चलना
दलदल से होकर गुजरना है
सच मेरे लिये जीत के लिये भी नहीं है
सच मेरा स्वभाव है
इसमें कोई दूसरा भाव नहीं है
अंतरात्मा मेरी फ़िर भी रूग्ण है
क्योंकि अकेला बेसहारा सच
अधिकतर बेजार रहता है
वह नहीं देखती
कि दुनियाँ  में क्या हो रहा है
सिरफिरे शतरंज खेल रहे हैं
और हम बने हैं मुहरें
चालें हैं उनकी अज़ब-गज़ब की 
मची है अफ़रा-तफ़री चारों ओर
वह नहीं देखती हर जगह
बेघर भटकती परित्यक्त अंतरात्माओं को
पटी धरती मरी अंतरात्माओं से
वह अपनी फटेहाली और बीमारी को लेकर रोती है
नहीं समझती कि मैंने उसे छोड़ा नहीं है
उसको नहीं किया है  बेघर
उसका करता हूँ आदर
वह फ़िर आएगी और रोएगी
क्योंकि वह मरी नहीं है

- नीरज कुमार झा 




3 टिप्‍पणियां:

  1. अंतरात्मा से ये बातचीत अच्छी लगी...

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  2. 'अकेला बेसहारा सच
    अधिकतर बेजार रहता है'

    वाह!बहुत खूब लिखा है!

    गहन भाव हैं कविता में.
    आभार.

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