जैसा दृष्टिगोचर है कि सामान्यतः एक मनुष्य अहंमन्यताकामी होता है। व्यक्ति का मन स्वयं की विशिष्टता का भाव गढ़ता है जो उसके लिए उसके अस्तित्व को सार्थकता देता है। उसकी विशिष्टता उसकी वास्तविकता से भिन्न हो सकती है, और सामान्यतः होती है। वह तरह-तरह के यत्न कर अपने स्वनिर्मित बिम्ब की दूसरों से पुष्टि चाहता है। यह भावना कुछेक में इतनी प्रबल होती है कि उनके प्रयास विचित्र और यहाँ तक कि स्वयं और अन्य हेतु हानिकर हो जाते हैं। इस उपक्रम में एक सामान्य व्यक्ति प्रतिदान की प्रत्याशा में दूसरों के अहम् की पुष्टि में लग जाता है। कुछ यह प्रयास चतुराई से करते हैं और कुछ बिना आवरण।
पारस्परिक संबंधों में और सार्वजनिक स्थलों पर इस प्रवृत्ति के समस्यामूलक होने के अलावा इन सर्वजनीन उपक्रमों के परिणामस्वरूप समाज का समस्त अभिकरण परस्पर अहम् तुष्टि और पुष्टि का व्यूह बन जाता है।
यह स्थिति सर्वहित, देशिक उन्नति, और जीवन की सहजता को बाधित करती है।
यह समस्या ज्ञानमीमांसा और अध्यापनशास्त्र द्वारा आरोपित बोधविरूपण की है जो एक व्यक्ति को उसकी स्वाभाविक अनन्यता को उसके बोध से निष्काषित कर उसे अपूर्ण और हीन सिद्ध करता है और उसे अंतहीन और अलभ्य अनन्यता के अभियानोंं में से किसी एक में भर्ती कर लेता है। वह आरोपित अनन्यता उसे मात्र एक अन्य और अन्य का एक साधन बना देता है जो वह जीवनपर्यंत समझ नहीं पाता है। जनतंत्र के युग में यह तंत्र पारस्परिक सहभागिता से निर्मित होता है ।
नीरज कुमार झा
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