कथारूप में जीवन का निरापद प्रतिनिधित्व लगभग असंभव है। अधिकतर कथाएँ (विशेषकर मनोरंजन उद्योग के द्वारा प्रयुक्त कथाओं की प्रकृति) एक विशेष व्यक्ति पर केंद्रित होती हैं, और अन्य सभी जन और परिस्थितियाँ उस चरित्र की केन्द्रीयता को पोषित करती हैं। समस्त को एक व्यक्ति के हेतु निमित्त के रूप में निरूपण जीवन की वास्तविकता का विरूपण है। यह कथाकार की आत्मकेंद्रीयता और अहमन्यता की प्रवृत्ति के प्रतिबिंबन के फलस्वरूप और लक्षित उपभोक्ताओं के समान भावनाओं की तुष्टि के लिए होता है। इसका दुष्परिणाम है; यह पाठकों और दर्शकों के दृष्टिकोण को संकुचित करता है। वह स्वयं को नायक में स्थित करते हुए कथा को ग्रहण करता है और अन्य को हेतु के रूप में देखता है। इस कारण से उसमें संवेदना और अन्य के प्रति सम्मान का भाव नकारात्मक रूप से प्रभावित होता है और वह हमेशा कुंठाग्रस्त रह सकता है। एक सुधी व्यक्ति को कथाकारिता की सीमाओं की भिज्ञता रखनी चाहिए और उसे इससे अन्य को अवगत कराना चाहिए।
नीरज कुमार झा
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