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रविवार, 26 मई 2024

ज्ञानदंभ

मानवीयता का सार और स्वरूप, दोनों ही, ज्ञान है। किसी में ज्ञानग्राह्यता की क्षमता का अभाव उसमें मानवीय गुणों का अविकसित रह जाना है (यहाँ ज्ञान का अभिप्राय आदमियों के निर्धारित कार्य में मशीनी प्रवीणता से नहीं है।)। प्रत्येक सभ्य समाज में प्रारम्भिक औपचारिक शिक्षा की व्यवस्था इसी उद्देश्य से की जाती है कि बच्चों में ज्ञानग्राह्यता की क्षमता जगायी जा सके। औपनिवेशिक शिक्षाप्रणाली इसका अपवाद है (यहाँ औपनिवेशविक शासनप्रणाली से अभिप्रयाय उस शासनप्रणाली है से जिसमें शासनकर्मियों के लिए उनके द्वारा शासित/सेवित जन का हित उनका प्रधान सरोकार नहीं हो पाता है।)। ऐसी व्यवस्थाओं में बच्चों और लोगों की औपचारिक रूप से शिक्षित तो किया जाता है लेकिन व्यवस्था-नियोजन इस तरह से होता है कि उसके प्रभावस्वरूप शिक्षार्थियों की ज्ञानग्राह्यता की क्षमता प्रभावी रूप से कुंठित हो जाती है। आज की प्रौद्योगिकी की भाषा में कहें तो उनकी प्रोग्रामिंग की जाती है। ऐसी निष्प्रभावी शिक्षा का प्रभाव किसी व्यक्ति में स्पष्ट दिखता है। वह है उनका तथाकथित ज्ञान को लेकर दंभ। ऐसे व्यक्तिअक्सर मिल जाते हैं। ऐसे व्यक्तियों के कर्ण मात्र स्वयं के मस्तिष्क की प्रतिध्वनि का श्रवण करते हैं।

नीरज कुमार झा

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