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रविवार, 5 मई 2024

विकास बुद्धि

मानव प्राकृतिक रूप से विकासशील प्राणी है। जंगलों में खाद्य शृंखला की एक कड़ी के रूप में रहने वाला  मानव आज जंगल के राजा को पिंजरे में रखता है और चाँद और मंगल तक अपनी पहुँच बना चुका  है। तकनीकों का आविष्कार और प्रयोग भी मनुष्यत्व का अहम भाग है, और उसकी उन्नति का हेतु है। इस तथ्य के इतर यह सच्चाई भी है कि यदि मानव विकास नहीं करेगा तो उसका ह्रास होगा। यथास्थिति में कोई  समुदाय रह तो सकता है लेकिन जहाँ अन्य आगे बढ़ेंगे तो वह समुदाय इस जुड़ी दुनिया में पीछे रह जाएगा और उसका शोषण होगा।  मानव जाति में अभी यह परिपक्वता नहीं आई है कि जो समुदाय यदि दूसरों को बिना नकारात्मक रूप से प्रभावित किए हुए  यथास्थिति में  रहता है तो उसे  उस स्थिति में रहने दे और उसका सम्मान करे। 

किसी भी देश के लिए इस दुनिया में यह अपरिहार्य है कि वह विकासशील रहे। विकसित जैसा कोई अंतिम लक्ष्य नहीं है क्योंकि यह दुनिया प्रतियोगी है और एक देश दूसरों के ऊपर वर्चस्व स्थापित करना चाहता है। आदर्श स्थिति तो यह होगी कि दुनिया के लोग आपस में सहयोग करें और सभी अपने जीवन को बेहतर बनाएँ। इस स्थति में भी परिस्थितियों को श्रेष्ठ बनाने का प्रयास समाप्त नहीं हो सकता है। 

विकास के लिए  जरूरी है विकासोन्मुख सोच। मानवता के विकास के इस चरण में विकसित होने की एक स्थिति देशों का  गणतंत्रात्मक होना है। इसमें देश के संचालन में नागरिकों की भूमिका आधारभूत होती है।  नागरिक राजनीतिक विषयों को समझने के लिए प्रयत्नशील रहते हैं, उनपर लेकर चर्चाएँ करते हैं, और अच्छे विचारों को क्रियाशील बनाने  के लिए सामूहिक रूप से सजग और प्रयासरत रहते हैं। गणतांत्रिक देशों में इस कार्य में अनेक अभिकरण भी अपना योगदान देते हैं। इसको लेकर यदि उदासीनता व्यापक है तो उस देश में यह प्रजाभाव की अवांछित निरन्तरता है। 

यह तो बिल्कुल साफ है कि नागरिक  समझ को सोर्स (विभिन्न बौद्धिक संसाधनों का उपयोग) तो करें  लेकिन आउट्सोर्स (डिब्बाबंद बौद्धिक सामग्रियों का उपयोग) नहीं करें। इसके बावजूद  नागरिक बौद्धिकता और सक्रियता अपने आप में पर्याप्त नहीं है। इसका विकास की दिशा में होना भी जरूरी है। बिना उचित परख के बौद्धिकता और सक्रियता भी पतनोन्मुख हो सकती है। स्वस्थ विचार स्वहित और सर्वहित के उचित समन्वय पर आधारित होता है। दूसरा, यह व्यक्ति के अस्तित्व और स्वायत्तता को आधारभूत दृष्टिगत करते हुए  उसकी भूमिका सामूहिक हित और पर्यावरणीय संतुलन के परिप्रेक्ष्य में निरूपित करता है। तीसरा, विकास की सोच सदैव ओपन एंडेड (खुली) होती है।यह सोच गंतव्य को लेकर नहीं बल्कि दिशा को लेकर होती है। चौथा, विचार ऐसा नहीं हो जिसके क्रियान्वयन से परिवर्तन की प्रकृति  स्वयं से आपदाकारी हो जाए।   अब मैं अपने लक्ष्य बिन्दु की ओर आता हूँ जो इस संदेश का सरोकार है। 

हमें हमारे समक्ष उपलब्ध समस्त विचारो, अवधारणाओं,  विचारधाराओं, पद्धतियों को अपनी  सोच-समझ के सहायतार्थ ही उपयोग करना चाहिए। यदि उनमें से कोई  हमारे सोच-समझ की क्षमता को नकारता है,  हमारे अस्तित्व की महत्ता का मान नहीं देता है, या हमारे अभिकरण का हरण करना चाहता है तो यह सर्वथा त्याज्य हैं। पहले वाक्य की समझ हमें दूसरे वाक्य की स्थिति से बचाती है। 

"उस प्राणस्वरूप, दुःखनाशक, सुखस्वरूप, श्रेष्ठ, तेजस्वी, पापनाशक, देवस्वरूप परमात्मा को हम अपनी अन्तरात्मा में धारण करें। वह परमात्मा हमारी बुद्धि को सन्मार्ग में प्रेरित करे।"

ऊपर मेरे द्वारा लिखी बातें मुझे अपनी शैक्षणिक प्रशिक्षण की पृष्ठभूमि में असाधारण लग रही है। आपको कैसी लगी। विमर्श का आवाहन।  

नीरज कुमार झा 

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