पहले यह आसान था। समझने के लिए उसी पटकथा का मंचन होता था जिन्हें वे स्वयं लिखते थे। समय बदल गया; लोग सोचने लगे। वे समझने लगे हैं कि सर्वहित और स्वहित में भिन्नता भ्रामक है। भारत के जन आम जन नहीं रहे, उन्होंने गण के रूप में अपनी बीती और भागीदारी से सीखा है। वे जानते हैं कि कैसे संगठित हितों से स्वयं की रक्षा करें और कैसे सामूहिक अभिकरण पर अंकुश रखें। निस्संदेह कमियाँ विकराल हैं और यह स्वाभाविक है क्योंकि खास के पास आम के लिए सिर्फ ख्याली पुलाव है। इंडिया, सरपरस्ती की वैचारिकी, के लिए अब भारत समझ से परे है लेकिन भारत अब इंडिया को समझ चुका है।
नीरज कुमार झा
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