रूग्णता का गीत नहीं गाया जाता।
संपत्ति से साहित्य भी सम्पन्न होगा। सम्पन्न व्यक्ति ही साहित्य पढ़ अथवा इसके प्रस्तुतीकरणों को देख सकता है। अधिकतर लोगों के द्वारा साहित्य पढ़ा जाए और खरीदा जाए तभी साहित्य की उपादेयता है और साहित्यकारों की प्रसंगिता भी। यह साहित्यकारों की प्रतिष्ठा भी बढ़ाएगी और बड़ी संख्या में रचनाकारों के लिए पर्याप्त आय वाली आजीविका भी बन सकेगी।
यह कैसी स्थिति है कि जिनपर लिखा जाता है वह पाठक नहीं है? जिस क्रांति की कोई संभावना नहीं है, उसका गीत गाया जाता है।
यह चलन जीवन और सृजन दोनों की वंचना का कारण है।
बड़ी समस्या यह है कि निदान नीरस होता है और समस्या सम्मोहक।
नीरज कुमार झा