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शनिवार, 25 दिसंबर 2010

मानवीयता के साथ

मैं कभी-कभी सोचता हूँ 
कि यदि कोई है 
सरल, सच्चरित्र, संवेदना से पूर्ण
और करुण हृदय 
उसे करनी चाहिए 
कोशिश पूरी ताक़त से 
शक्ति और सत्ता के लिये 
ताकि रहे अनाहत उसकी मानवीयता 
पाशविकता के प्रहारों से 
फ़िर सोचता हूँ 
मानवीयता के साथ सत्ता 
क्या सम्भव है दोनों का साथ
मेरा अनुभव कहता है
चुनाव ही विकल्प है 
सामान्य मेधा व  संकल्प के व्यक्ति के लिये 
चुनाव ही जब करना है 
रहना चाहूँगा मैं 
अपनी आहत और जीर्ण 
मानवीयता के साथ

- नीरज कुमार झा 


गुरुवार, 16 दिसंबर 2010

भारती का भविष्य

भारती से यहॉ आशय हिन्दी भाषा से है. इस भाषा को व्यापक बनाने तथा राष्ट्रीय स्तर पर इसकी स्वीकार्यता को बढ़ाने के लिये भारती नाम का प्रयोग ही उपयुक्त प्रतीत होता है. इससे स्पष्ट सन्देश जाता है कि भारती भारत की भाषा है. हिन्दी नाम से कुछ लोग भ्रमित हो जाते हैं. ऐसे लोग इस भाषा को धार्मिक मतावलम्बन या क्षेत्रीयता के संदर्भ में देखते है. भारती नाम ऐसे निराधार धारणाओं को दूर करने में सहायक हो सकता है. इस नाम से इसके व्यापकीकरण तथा इसे भारत के सम्पर्क भाषा के रूप में प्रभावी तौर से स्थापित करने में भी काफी सहायता मिल सकती है. गांधीजी समेत अनेक नेताओं ने अपेक्षा की थी कि हिन्दी अन्य भारतीय भाषाओं की अभिव्यक्तियों को अंगीकार कर समग्र भारत में बोधगम्य होगी तथा यह भारत की राजभाषा मात्र न रहकर भारत की एकता तथा राष्ट्रीयता की भाषा हो सकेगी. भारती नाम इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिये भी सकारात्मक होगा. वैसे भी, संस्कृत, जो विश्व की महानतम तथा ऐतिहासिक भाषाओं में से एक है, के मूल की अग्रणी भाषा हिन्दी, जो भारतीय राष्ट्रवाद की आकांक्षाओं का भी प्रतीक है, के लिये प्रयुक्त संज्ञा तत्सम/देशज ही होनी चाहिए। इन तथ्यों के परिप्रेक्ष्य में इस आलेख में, जिसमें इस भाषा के वर्तमान के अधार पर इसके भविष्य को लेकर कुछेक अप्रिय सम्भावनाओं पर चिंताएँ प्रगट की गयी हैं तथा उन चिंताओं के निवारण हेतु कुछेक विचार भी प्रस्तावित किये गये हैं, हिन्दी के लिये भारती शब्द का ही प्रयोग यथासम्भव किया गया है.
भाषा की स्थिति का समकालीन सन्दर्भ
विश्व पटल पर भारत की प्रभावशाली पहचान है तथा भारत का उज्ज्वल भविष्य, सम्पन्न तथा शक्तिशाली देश के रूप में, स्वप्न नहीं वरन् उपलब्धनीय सत्य प्रतीत हो रहा है. लेकिन इस सत्य का भयावह नकारात्मक पहलू भी है. इस सत्य का मूल्य सम्भवतः भारत की अस्मिता है तथा निश्चित रूप से इसकी अस्मिता की प्रतिष्ठा है. पूरे विश्व को एक समष्टि के रूप में लें तो इसकी अपनी आर्थिक व राजनीतिक संरचनाएँ हैं जो अपने निर्माणकों से काफी हद तक स्वतंत्र हैं. लेकिन इसकी संस्कृति सर्वाधिक शक्तिशाली सदस्यों की संस्कृति से ज्यादा भिन्न नहीं है. ऐसा होना स्वाभविक है. हालांकि भारत इस संस्कृति एवं व्यवस्था का अंग है लेकिन उसमें इसकी हिस्सेदारी मामूली है. भारत इस व्यवस्था का हिस्सा बनता जा रहा है तथा वैश्विक संस्कृति पर इसके प्रभाव का भी अनुभव किया जा सकता है लेकिन वह प्रभाव गौण है. भारत इस व्यवस्था में समाहित होने का प्रयास कर रहा है लेकिन वह इसका निर्माणक नहीं है.
विश्व व्यवस्था में भारत का समकालीन उद्भव भी भ्रामक है. इसमें काफी हद तक विदेशी पूँजी का हाथ है, खासकर व्यवसाय प्रक्रिया बाह्यसाधन (बी.पी.ओ.) का जिसकी वजह से भारत विश्व पूँजीव्यवस्था का पश्च-कार्यालय बनने का स्वप्न देख रहा है. वास्तव में भारत भूमि विश्व पूँजी व्यवस्था की कार्य-स्थली बन रही है जिसमें भारतीय अभ्यर्थी, श्रमिक, क्षुद्रसेवी, लिपिक तथा आश्रित उपोद्यमियों की भूमिका निभाने जा रहे हैं. भारत की अतिदरिद्रता के परिप्रेक्ष्य में इस तरह की उन्नति भी तोष का विषय हो सकता है लेकिन मान का नहीं.
उदारवादी वैश्वीकरण के इस दौर में इस वैश्विक संस्कृति का निरंतर विस्तार हो रहा है. वैश्वीकरण के आर्थिक प्रभावों को लेकर मतभेद हो सकता है लेकिन विभिन्न संस्कृतियों पर इसके विघटनात्मक तथा विलयनकारी प्रभावों को नकारना असम्भव है. भारत की संस्कृति पर पाश्चात्य संस्कृति के प्रभावों के नकारात्मक तथा सकारात्मक दोनों ही पहलू हैं लेकिन जो चिंता का कारण है वह भारत की धूमिल हो रही सांस्कृतिक अस्मिता है. भारत का आभिजात्य वर्ग विदेशी संस्कृति को तेजी से अपना रहा है तथा सांस्कृतिक आदर्शों में पश्चिमी सांस्कृतिक मूल्य शुमार हो रहे हैं. प्रवृत्ति भारतीयता में संशोधन या सुधार की नहीं है बल्कि पश्चिमी मूल्यों का अंधानुकरण है. भारत में पुनर्जागरण काल में भी पश्चिमी मूल्यों से प्रेरणा ली गयी थी लेकिन भारतीय मूल्यों को नकार कर नहीं. यहाँ जो विषय विचारणीय है वह संस्कृति से जुड़ा सबसे बड़ा और पहला मुद्दा है. यह मुद्दा भाषा का है. भाषा किसी भी सभ्यता या समाज की संस्कृति की वाहिका हो्ती है. आज इस वैश्वीकरण के दौर में विश्व की अन्य भाषाओं के साथ भारती का भी भविष्य शोचनीय है. इस एकीकृत विश्व की भाषा अँगरेजी है. यह अंतरराष्ट्रीय वाणिज्य की भाषा है, विश्व पूँजी की भाषा है. यह विश्व को नियंत्रित करने वाली राजनीति की भाषा है. उदारवादी वैश्वीकरण के इस दौर में अँगरेज़ी भाषाई एवं सांस्कृतिक ब्रह्मांड का अंधगह्वर (ब्लैक होल) बन चुका है जिसके विनाशक आकर्षण का प्रभाव विश्व की तमाम भाषाओं एवं संस्कृतियों पर स्पष्ट अनुभव किया जा सकता है. इसका प्रमाण अँगरेज़ी का निरंतर विस्तार एवं तेजी से विलुप्त हो्ती विश्व की कमज़ोर और छोटी भाषाएँ हैं. दुनियाँ में आज जहाँ सौ करोड़ से ज़्यादा लोग द्वितीयक भाषा के रूप में अँगरेज़ी का उपयोग कर रहे हैं वहीं बड़ी संख्या में भाषाएँ निरंतर विलुप्त हो रही हैं. कालांतर में विश्व की अनेक महत्वपूर्ण भाषाएँ, और संस्कृतियाँ भी, बिना किसी निशान, धरोहर या उत्तराधिकार के अँगरेज़ी के इस अंधगह्वर में विलीन हो जायेंगी. भारत की राष्ट्रभाषा हिंदी के भविष्य की ऐसी सम्भावना की कल्पना भी त्रासद है. हालांकि भारती जैसी बहुभाषी भाषा के लिये इस तरह का विलुप्तीकरण तो प्राय: सम्भव नहीं है लेकिन इसके पतन के लक्षण स्पष्ट हैं. वास्तव में भारती का वर्तमान भी कम चिंताजनक स्थिति में नहीं है. हिंग्लिश का आंग्ल भाषा का सर्वाधिक भाषी स्वरूप होने की दिशा में बढ़ना भारती का अँगरेज़ी में विलयन की प्रकिया का लक्षण हो सकता है. आज विश्व में संयुक्त राज्य अमेरिका तथा ब्रिटेन के बाद सबसे ज़्यदा अँगरेजी बोलने वाली आबादी भारत में रहती है.
उदारवादी वैश्वीकरण के अंतर्गत भारतीय संस्कृति के अस्मिता को लेकर खतरों को रेखांकित करने का यह अर्थ कदापि नहीं है कि उदारवाद या वैश्वीकरण भारत या भारतीय संस्कृति के लिये अहितकर हैं. वास्तव में भारतीय संस्कृति के अवमूल्यन का कारण आज़ादी के बाद उदारवाद से विमुख होना था. स्वतंत्रता के पश्चात भारत में मेजतंत्रीय समाजवाद को अर्थनीति का आधार बनाया गया. आशा के विपरीत लेकिन इस व्यवस्था के अनुरूप इसके अंतर्गत विकास की गति अत्यंत शिथिल रही. इस काल में न सिर्फ भारतीयों की उद्यमिता दमित रही बल्कि उनकी सर्जनात्मक क्षमताओं का भी क्षरण हुआ. यह भारतीय इतिहास का सबसे विभ्रमकारी युग था जिसमें निहित स्वार्थों के द्वारा अनधीनता के नाम पर दासता, विकास के नाम पर विपन्नता और ज्ञान के नाम पर प्रचार परोसा गया. हालांकि इस व्यवस्था की कमजोरियों ने ही भारत में उदारवाद का मार्ग प्रशस्त किया लेकिन आज भी उदारवाद भारत के मध्यवर्ग में एक घृणित शब्द है खासकर भाषा तथा साहित्य के पुरोधाओं के मध्य. उदारवाद अपनी असीमित क्षमताओं  के आधार पर भारतीयों के मध्य सम्बल बन उपस्थित है और इसके लाभ बेहतर विकास दर और घटती गरीबी के रूप में स्पष्ट हैं. फ़िर भी उदारवाद को कम ही सराहा जाता है. इसमें निश्चित रूप से निहित स्वार्थों की भूमिका है लेकिन ज़्यादा बड़ा कारण शिक्षा के नाम पर प्रचार के शिकार लोगों की मानसिकता का है. आर्थिक विकास के द्वारा ही भाषा, तथा संस्कृति भी, सुरक्षित रखी जा सकती है. विपन्नता की स्थिति में संस्कृति कभी भी फल-फूल नहीं सकती है. उदारवाद तथा वैश्वीकरण भारत को अवसर प्रदान कर रहा है कि भारत अपनी काबिलियत विश्व में साबित करे. कई भारतीय उद्यमी ऐसा कर भी रहे हैं. आवश्यकता उन अवसरों के विस्तार की है जिससे जन-जन में छिपी उद्यमिता तथा सृजनात्मक क्षमताएँ विकसित हो सके. जरूरत है भारत को विश्व पूँजी व्यवस्था में अपनी उचित स्थान बनाने की ताकि अन्य देशों के लोग भारती सीखकर गर्वान्वित हों.
चिंता तथा चिन्तन का विषय
प्राय: प्रत्येक हिन्दीभाषी हिन्दी को एक विश्वभाषा के रूप में देखना चाहता है लेकिन स्थिति यह है कि भारत के हिन्दी क्षेत्र में ही यह भाषा अपनी अस्मिता की रक्षा के लिये संघर्षरत है. इसकी उपादेयता पर भी प्रश्नचिह्न लग चुका है. यही कारण है कि विपन्न वर्ग के जन भी अत्यंत त्याग कर अपने बच्चों को अँगरेज़ी माध्यम में शिक्षा दिलवाते हैं. विकल्पहीनता की स्थिति में कोई भी अपने पालितों को हिन्दी माध्यम के विद्यालय में भेजता है. आज की अर्थव्यवस्था में अँगरेज़ी का बोलबाला तो निर्विवाद है. कृषि, लघु उद्यम, श्रम को छोड़ दें तो एक छोटी सी नौकरी पाने के लिये भी अँगरेज़ी का ज्ञान अनिवार्य योग्यता का हिस्सा हो चुका है. प्रबंध की भाषा तो अँगरेज़ी है ही. अगर लोगों की मनोस्थिति को मापदंड माने तो हिन्दी एक भाषा के रूप में सम्मान तथा उपादेय्या निश्चित तौर पर समाप्त हो चुकी है. इसका अस्तित्व महज मजबूरी या आनुष्ठानिक है. जहाँ भारत का मध्यवर्ग अँगरेज़ी को अपनाने की पुरज़ोर कोशिश कर रहा है वहीं भारतीय अभिजन में तो यह घरेलू बोलचाल की भी भाषा नहीं रह गयी है. सिर्फ़ राजनीतिक अभिजन का एक छोटा हिस्सा अपवाद हो सकता है. यहाँ तक कि हिन्दी फिल्मों के अभिनेता तथा अभिनेत्रियाँ, जो हिन्दी में लच्छेदार संवाद बोलते नज़र आते हैं, अपनी निजी तथा सामाजिक जीवन में इस भाषा का प्रयोग करना अपना तौहीन मानते हैं. यह विचार की भाषा तो रह ही नहीं गयी है. अच्छे शोध, अच्छे विचार तथा शायद अच्छे साहित्य के लिये भी हिन्दी भाषी अँगरेज़ी भाषा पर निर्भर करते हैं. साहित्य में तो भले ही इस भाषा की महत्ता को कमतर आँकना उचित नहीं हो लेकिन मानविकी को छोड़ दें तो समाज, प्राकृतिक तथा भौतिक विज्ञानों में इस भाषा का प्रयोग श्रेष्ठ संस्थानों में अपवाद स्वरूप ही होता है. तकनीक या प्रौद्योगिकी प्रशिक्षण, जिसका उद्देश्य मात्र विज्ञान को व्यवहारिक स्वरूप प्रदान करना है में भी भारती का प्रयोग नहीं के बराबर है. जिन लोगों ने हिन्दी को अपने शोध या सृजन का माध्यम बनाया हुआ है वे सामान्यतया अँगरेज़ी के प्रयोग में असमर्थ हैं. हिन्दी भाषी राज्यों के प्रशासन में अँगरेज़ी के प्रयोग को नीति के अंतर्गत हतोत्साहित किया जा्वा है लेकिन उसके बावजूद निहायत ही देसी किस्म के, आंचलिक शिक्षण संस्थानों में पढ़े बड़े, मझोले और यहाँ तक की छोटे मेजतंत्रीगण (ब्यूरोक्रैट्स) भी मिली जुली तथा टूटी फूटी ही सही, अँगरेज़ी के उपयोग को अपने साहबीयत का अभिन्न हिस्सा मानते हैं. यहाँ तक कि संसद में भी हिन्दी क्षेत्र के जनप्रतिनिधि भी यदि बोलने की स्थिति में हैं तो अँगरेज़ी ही बोलते हैं. बक़ौल उपराष्ट्रपति सह राज्यसभा अध्यक्ष श्री भैरों सिंह शेखावत, संसद में सांसद हिन्दी बोलने से कतराते हैं या यदि बोलते हैं तो उन्हें गम्भीरता से नहीं लिया जाता है (टाइम्स अव इंडिया, पटना, ३१ मई २००५). उच्चतर न्यायालयों में तो हिन्दी को अभी तक अपनाया भी नहीं गया है.
उपर्युक्त संक्षिप्त विवरण का उद्देश्य भारत देश में ही भारती का दोयम दर्जे की भाषा के रूप में पतन को रेखांकित करना है. यह अत्यंत त्रासद विडम्बना है कि किसी देश की राष्ट्रभाषा स्वदेश में ही द्वितीयक श्रेणी की भाषा सिद्ध हो रही है. हालांकि वैश्वीकरण के इस युग में भारतीयों की आंग्ल भाषा में प्रवीणता भारत की विशेषता के रूप में देखी जाती है, खासकर चीन की तुलना में. चीन से जब भी भारत की तुलना आर्थिक विकास के क्षेत्र में की जाती है तो भारत में अँगरेज़ी के प्रचलन को भारत के पक्ष में देखी जाती है. चीन भी इस कमी को दूर करने में युद्धस्तर पर लगा हुआ है. एक आकलन के अनुसार चीन में अभी छ: करोड़ लोग अँगरेज़ी का अध्ययन कर रहे हैं. ऐसा समय दूर नहीं कि जब दुनियाँ में सबसे ज़्यादा आंग्लभाषी चीन में होंगे. अँगरेज़ी सीखना आज समय की माँग है. इसे सीखना प्राय: विश्व बाज़ार में प्रतियोगी बने रहने की आवश्यकता है. अँगरेज़ी सीखना ग़लत भी नहीं है और अँगरेज़ी का विरोध तो देशवासियों के लिये अत्यंत अहितकर है, खासकर गरीब तबको के लिये. यदि अँगरेज़ी हटायी जाती है तो यह सरकारी विद्यालयों से ही हटेगी जिसकी सबसे ज़्यादा मार गरीबों पर पड़ेगी. गरीबी दूर करने का यदि एक माध्यम शिक्षा है तो शिक्षा अँगरेज़ी माध्यम में इस उद्देश्य को प्राप्त करने में और भी प्रभावी होगी. यहाँ पैरोकारी जैसा कि स्पष्ट है कि अँगरेज़ी का विरोध नहीं है बल्कि भारती की प्रतिष्ठा एवं उपादेयता में विस्तार कर इसे अधिक ग्राह्य बनाने तथा एक दूरगामी लक्ष्य के रूप में इसे विश्वभाषा के रूप में प्रतिष्ठित करने के उपायों पर विचार करना है है. लेकिन इससे पूर्व ऐसा करना क्यों आवश्यक है उसपर विचार करना समीचीन है क्योंकि जैसा कि आगे स्पष्ट किया गया है कि यह मात्र भावना का प्रश्न नहीं है.
भाषा की उन्नति की अभीष्टता
सर्वप्रथम अँगरेज़ी भाषा के महत्ता को बताने के लिये जिस आर्थिक विकास की दुहाई दी जाती है उसी पर विचार करना आवश्यक है. आर्थिक दृष्टिकोण से तो वैसे पूरा भारत ही पिछड़ा है लेकिन हिन्दी भाषी क्षेत्र की स्थिति और भी दयनीय है. उत्तर तथा पूर्व भारत का विशाल हिन्दी भाषी क्षेत्र विश्व की आबादी के प्रायः निकृष्टतम जीवनस्तर वाले लोगों का है. इस क्षेत्र को बिमारू क्षेत्र भी कहा जाता है. बिमारू शब्द बिहार, मध्यप्रदेश, राजस्थान तथा उत्तर प्रदेश के प्रथम अक्षरों से बना एक्रोनिम है. इसे काउबेल्ट, गोबरपट्टी, तथा हिन्दी हिंटरलैंड आदि नामों से भी जाना जाता है. कहने का अर्थ यह है कि यह क्षेत्र पिछड़ेपन का पर्याय बन चुका है. कारणों का विश्लेषण यहॉ नहीं किया जा सकता है लेकिन ऐसे लोगों की भाषा ही यदि उपादेयता न रखती हो तो इनके द्वारा प्राप्त शिक्षा का महत्व वैसे ही कम हो जाता है. शिक्षा यदि गरीबी का एक उपचार है तो हिन्दी माध्यम में शिक्षित जन कम प्रभावशाली उपचार पा रहे हैं क्योंकि रोजगार तथा व्यवसाय के अधिकांश क्षेत्र उनके लिये प्रतिबंधित हैं तथा देश के उच्चतर स्थानों तक पहुँचने से वे हमेशा के लिये वंचित हैं. अँगरेज़ी का वर्चस्व उनकी नागरिकता के आधार समानता के सिद्धांत पर भी चोट करता है. यह उनके सम्मान पर आघात तथा उनके जीवन अवसरों को बाधित कर रहा है. ऐसी स्थिति में इस क्षेत्र के वासियों के विकास के लिये आवश्यक है कि देश के हिन्दी भाषी क्षेत्र में कम से कम भारती की प्रधानता स्थापित हो. समाज के पिछड़े तबको के लिए तो यह और भी आवश्यक है. उनकी कई पीढीयाँ समुचित शिक्षा के अवसरों के अभाव में अँगरेज़ी में दक्षता प्राप्त करने में गुजर जायेंगी. हिन्दी का विकास देश के बड़े हिस्से के आर्थिक विकास के लिये ही नहीं वरन्‌ सामाजिक न्याय के लिये भी अनिवार्य है. भाषा का विकास आर्थिक विकास की दो पद्धतियों - लोकोन्मुखी तथा वृद्धिकेंद्रित - में से प्रथम के लिये भी आवश्यक है. वास्तव में हिन्दी क्षेत्र में किसी तरह का व्यवसाय या रोजगार करने के लिये हिन्दी पर्याप्त ही नहीं बल्कि अनिवार्य भी है. कोई भी व्यवसाय या सेवा इस क्षेत्र में बिना हिन्दी के ज्ञान के सम्भव ही नहीं है. मात्र यहॉ अँगरेज़ी का हौआ बनाया गया है ताकि अभिजन अपना प्रभुत्व बनाए रख सके. संक्षेप में उपर्युक्त विवरण का उद्देश्य यह स्पष्ट करना है कि हिन्दी भाषी लोगों के आर्थिक विकास तथा सम्मान के लिये आवश्यक है कि हिन्दी की उपादेयता तथा सम्मान को सशक्त किया जाय. इसके लिये मात्र अँगरेज़ी के मायाजाल को तोड़ने की आवश्यकता है. अँगरेज़ी सीखना जरूरी है तो सिर्फ एक हुनर के रूप में.
हिन्दी भाषियों के आर्थिक विकास से हिन्दी का विकास तथा हिन्दी के विकास से उनका आर्थिक विकास तो जुड़ा है ही लेकिन भाषा का प्रश्न जीवन के अन्य क्षेत्रों से भी असम्पृक्त नहीं है. इसका स्पष्ट संबंध राजनीति की प्रकृति में सुधार तथा संस्कृति के परिष्कार से है. भारत के हिन्दी क्षेत्र का पराभव प्रधानतया इस क्षेत्र की निम्न स्तरीय राजनीति के कारण है. हिन्दी भाषी क्षेत्र में स्वस्थ तथा गतिशील सामाजिक व्यवस्था के लिये आवश्यक है कि समाज विज्ञानों में उपलब्ध ज्ञान जनता तक प्रेषित हो, जो हो नहीं रहा है. कारण है वही कि भारती साहित्य की भाषा तो है लेकिन समाज विज्ञानों की नहीं. समाज संबंधी चिंतन तथा स्थापनाएँ अभी भी भारत में आयातित ही हैं; उनमें मौलिकता का अभाव है. वे लोक जीवन से जुड़े नहीं हैं यदि जुड़े भी हैं तो समाजविज्ञान भारतीय परिदृश्य में हाशिये पर हैं. कारण है कि समाज विज्ञानियों ने अँगरेज़ी भाषा को अपने अध्ययन, शोध तथा ज्ञान विस्तार का माध्यम बना रखा है जिस कारण से वे आम जनता तक पहुँच नहीं पाते हैं. सामाजिक चिंतन तथा ज्ञान जनतांत्रिक आधार के अभाव में प्रभावहीन रह जाते हैं. दूसरी तरफ जनता उच्चतर चेतना के अभाव में पिछड़ी तथा दमित रह जाती है. दूसरे शब्दों में ज्ञान जनसमर्थन के अभाव में प्रभावहीन रहता है तथा जन ज्ञान के अभाव में निःशक्त. साहित्य की बात लें तो हिन्दी साहित्य की स्थिति की समस्या गुणवत्ता की कम तथा प्रसार की ज्यादा है. प्रसार सामान्य जन में निरक्षरता, अशिक्षा, निर्धनता तथा निम्न जीवन स्तर के कारण बाधित है. प्रसार के अभाव में अच्छा साहित्य पनप भी नहीं पाता है. लोकग्राह्यता के अभाव के कारण प्रकाशक सरकारी खरीदी पर निर्भर करते हैं जिसके कारण साहित्य का प्रसार नहीं वरन्‌ भ्रष्टाचार का विस्तार होता है तथा लेखक प्रकाशक का मुहताज रहता है। ऐसे कुंठित साहित्यकारों से क्या उम्मीद की जा सकती है? साहित्य है क्योंकि इतनी बड़ी आबादी से सृजन का विलोप हो ही नहीं सकता है. फ़िर भी समाज विज्ञानियों की अपेक्षा हिन्दी साहित्यकारों की समाज में ज़्यादा प्रतिष्ठा तथा प्रभाव है क्योंकि वे ज़्यादा लोगों के लिये सुलभ हैं.
दूसरा पहलू जो समाज विज्ञानों से ही संबंध रखता है वह है मानव अधिकारों की उपलब्धता का. हिन्दी भाषियों के जीवन स्तर को सुधारने के लिये मानव अधिकारों की सुनिश्चितता भी आवश्यक है. यह तथ्य स्थापित हो चुका है कि अंतर्राष्ट्रीय समुदाय द्वारा निर्धारित मानवाधिकार आर्थिक विकास, सांस्कृतिक उन्नति तथा जनतंत्र के सबलीकरण के आधार हैं. भारतीय जनतंत्र के शरीर को सबल तथा स्वस्थ बनाने के लिये अधिकारों की उपलब्धता के व्यापक विस्तार की आवश्यकता है. सत्ता इस दिशा में मंथर गति से चलती है और वह भी पीछे से धकेलने पर. वास्तव में सत्तासीनों के अपने हित होते हैं जो जनता के हितों से सामान्यतः विपरीत ही होते हैं. आवश्यकता होती है जनजागृति की। सजग जन अपने अधिकारों को माँगे तथा हासिल करें, यही मार्ग है सशक्तीकरण का - व्यक्तियों तथा समाज का। इसके लिये भी आवश्यक है भाषा के उपादेयता के विस्तार की. मानव अधिकार आन्दोलन तब तक सफल नहीं होगा, जब तक इस विषय के साहित्य, शोध तथा सिद्धांत जनता के बीच उनकी भाषा में प्रस्तुत नहीं किये जाते हैं.
इस तरह से भाषा का महत्व भावनात्मक के अलावा सांस्कृतिक, आर्थिक या राजनीतिक भी है.  इन तथ्यों पर विचार के उपरांत भाषा का महत्व राष्ट्रशक्ति के एक महत्वपूर्ण तत्व के रूप में भी विचारणीय है. इस दृष्टिकोण से भाषा का महत्व अंतर्राष्ट्रीय है. आज राष्ट्रशक्ति में मृदु शक्ति की महत्ता बढ़ रही है. सैन्य तथा अर्थ बल के अलावा शिक्षा, संस्कृति, कला, साहित्य, दर्शन तथा राजनीतिक व्यवस्था की प्रतिष्ठा भी राष्ट्रशक्ति के प्रमुख तत्वों में गण्य हैं. शक्ति के ऐसे तत्व मृदुशक्ति के रूप में जाने जाते हैं. ऐसे में भाषा की प्रतिष्ठा भी राष्ट्रशक्ति का प्रमुख तत्व हो सकता है. फ्रांस, जर्मनी तथा रूस की शक्ति तथा प्रतिष्ठा का एक अवयव उनकी भाषाएँ भी हैं. अँगरेज़ी आंग्लभाषी देशों की शक्ति को परिलक्षित ही नहीं वरन्‌ पुष्ट भी करती है. राष्ट्रशक्ति के विस्तार के लिये भी राष्ट्रभाषा का अंतर्राष्ट्रीय जगत में सम्मान भी महत्वपूर्ण है.
जहॉ तक तार्किकता की बात है भाषा का उस दृष्टिकोण से तो महत्व है ही लेकिन इसका सीधा संबंध भावना से है. भाषा राष्ट्रीयता, संस्कृति तथा संस्कारों के केंद्र में है. वास्तव में भावना का अपना तर्क है, जो तर्कों में सर्वोपरि है. सवाल यह उठता है कि क्या पराश्रित उन्नति सच्ची उन्नति है? क्या सम्पन्नता अस्मिता के मूल्य पर अभीष्ट है? क्या सांस्कृतिक स्वायत्तता खोकर राजनीतिक स्वतंत्रता का कोई अर्थ रह जाता है? ऐसे बहुत सारे मुद्दे हैं जहॉ भावना ही अंतिम तर्क है. इस मुद्दे पर तर्कों का मूल यही है कि भाषा का प्रश्न सभी तर्कों से परे है.
उन्नति के आधार
हिन्दी निश्चित रूप से पराभव की स्थिति में है लेकिन इसके उदय के प्रबल आधार उपस्थित हैं. आवश्यकता इच्छा शक्ति को जाग्रत करने तथा सक्रिय होने की है. हिन्दी चीनी भाषा के बाद दुनियाँ की दूसरी सबसे ज़्यादा बोले जाने वाली देशज भाषा है। देशज भाषा के रूप में अँगरेजी तीसरे स्थान पर है तथा स्पेनी भाषियों की संख्या उनसे ज्यादा पीछे नहीं है. विदेशों में फैले दो करोड़ से ऊपर अप्रवासी भारतीय तथा भारतीय मूल के लोग इस भाषा के विस्तार के सक्षम संवाहक हो सकते हैं. हिन्दी चलचित्र उद्योग विश्व में हालीवुड के बाद दूसरा स्थान रखता है. आज भी देश में अँगरेज़ी अखबारों से बहुत ज्यादा पाठक संख्या हिन्दी अखबारों की है. इलेक्ट्रानिक मीडिया में भी हिन्दी चैनल ही सबसे ज्यादा देखे जाते हैं. ये प्रमाण हिन्दी के सबल आधार की ओर इंगित करते हैं. यह आधार वास्तव में पिछड़े क्षेत्र के विपन्न जन हैं. उनके सम्मान तथा समृद्धि के लिये भी आवश्यक है कि हिन्दी का विकास हो. हिन्दी में अभी काफी संभावनाएँ मौजूद हैं लेकिन यह भाषा आज इस स्थिति में नहीं है कि यह अपने बल पर विश्व भाषा बन सके. इसके लिये विशेष प्रयासों की आवश्यकता है. इसके लिये विशेष निवेश की आवश्यकता है. ऐसा भी नहीं है कि वैज्ञानिक तथा तकनीकी विकास के लिये हिन्दी पर जोर अवरोधक हो. दुनियॉ के अनेक देशों ने स्वदेशी भाषा के माध्यम से ही ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में स्वतंत्र प्रगति की है तथा इन क्षेत्रों में उनकी उपलब्धियॉ आंग्ल भाषी देशों से किसी भी तरह से कमतर नहीं है. जर्मनी, जापान तथा रूस सहित अनेक यूरोपीय देश इसके उदाहरण हैं.
उन्नति का मार्ग
हिन्दी को सशक्त बनाने का उत्तरदायित्व हर हिन्दी भाषी का है. यह उसके लिये मात्र भावनात्मक प्रश्न नहीं है. इससे उसका आर्थिक, राजनीतिक तथा सांस्कृतिक हित जुड़ा है. साथ ही यह भी समझने की आवश्यकता है कि अँगरेज़ी भाषा का वह कितना गहन अध्ययन करे, कितना भी इसका अभ्यास करे, चूँकि यह एक विदेशी भाषा है और विदेशी संस्कृति की अभिव्यक्ति है, वह इस भाषा में उस स्तर का प्रावीण्य प्राप्त नहीं कर सकता है जो देशज भाषा में उसे सहज प्राप्त होता है. अँगरेज़ी भाषाइयों में उसकी पहचान तो एक शरणार्थी की ही रहेगी चाहे वह कुछ भी कर ले. यदि वह अँगरेज़ी में प्राकृतिक प्रवीणता हासिल कर भी लेता है तो वह ऐसा अपनी संस्कृति से बिलगाव की कीमत पर करता है. अतः प्रत्येक हिन्दी भाषी स्वयं तथा हर तरह तथा हर स्तर के संगठन, जिसपर उसका प्रभाव है, में प्रयास करे कि हिन्दी के प्रभाव में वृद्धि हो। ऐसी स्थिति में ही सरकारी प्रयासों में भी गम्भीरता तथा ईमानदारी दिखने की सम्भावना है.
यहाँ यह भी स्मरण रखने की आवश्यकता है कि जब भी हिन्दी के प्रसार का प्रयास हो तो उसमें किसी तरह के वर्चस्व की भावना बिलकुल नहीं होनी चाहिए. हिन्दी का प्रत्येक भारतीय भाषा से सहयोगात्मक रवैया होना चाहिये तथा नीति सहविकास की होनी चाहिये. यहाँ तक कि हिन्दी भाषी क्षेत्र में भी हिन्दी को शिक्षण संस्थानों पर थोपना भी अनुचित होगा. यह हर सामान्य शिक्षण संस्थान - विद्यालय से लेकर विश्वविद्यालय तक - का अधिकार होना चाहिए कि वह आवश्यकतानुसार अपने शोध तथा शिक्षण के माध्यम का चयन करे. आज अँगरेज़ी का विरोध वास्तव में अप्रासंगिक हो चुका है. इस भाषा में भारतीयों की प्रवीणता देश के लिये लाभदायक सिद्ध हो रही है. आज देश में जरूरत है कि ज्यादा लोग अच्छी अँगरेज़ी सीखें.यह देश की आर्थिक प्रगति के लिये आवश्यक है. लेकिन यह ध्यान रखना नितांत आवश्यक है कि अँगरेज़ी एक साधन है न कि साध्य. अँगरेज़ी सीखना चाहिए लेकिन एक उपकरण के रूप में. सीखना गलत नहीं है, गलत है अँगरेज़ी के प्रति समर्पण, उसकी अराधना. गलत है भारती का तिरस्कार, उसकी अवमानना.
जहाँ तक विदेशों में हिन्दी के प्रचार-प्रसार की बात है उसमें भी साम्राज्यवादी प्रवृत्ति लेशमात्र नहीं होनी चाहिए. इसके विपरीत भारती के प्रसार का उद्देश्य भाषाई साम्राज्यवाद, जो वृहत्तर साम्राज्यवाद का ही हिस्सा है, का प्रतिकार होना चाहिए. साम्राज्यवाद का प्रतिकार वैकल्पिक साम्राज्यवाद नहीं वरन्‌ अन्य भाषाओं का संरक्षण है. आज यदि विश्व की पारिस्थितिकी की आवश्यकता जैव विविधता है तो विश्व समाज की जरूरत इसकी सांस्कृतिक विविधता की रक्षा है. भारती के प्रसार का प्रयास परस्पर आदान प्रदान के आधार पर हो. हिन्दी भाषी विश्व के तमाम संस्कृतियों से उनकी भाषा सीखकर सीधा सम्पर्क कायम करें तथा उसके साथ ही भारती के प्रसार का प्रयास करें, यही उचित होगा.
भारती के सशक्त बनाने के लिये आधारभूत आवश्यकता है कि हिन्दी भाषी क्षेत्र का आर्थिक विकास तीव्र गति से हो. भाषा की प्रतिष्ठा के लिये मात्र यह आवश्यक नहीं है कि वह भाषा कितने बड़ी संख्या में लोगों के द्वारा बोली जाती है. महत्वपूर्ण यह है कि भाषियों की आर्थिक स्थिति क्या है? आर्थिक विकास के लिये राजनीति तथा प्रशासन को इस दिशा में प्रवृत्त करने की आवश्यकता है. प्रवृत्त करने से अभिप्राय है कि राजनीतिक तथा मेजतंत्री स्वयं को आर्थिक विकास को बाधित करने से रोकें.
उपर्युक्त तथ्य तो मूलभूत है लेकिन जो विषय प्राथमिक तथा ज्वलंत है, वह इस क्षेत्र में शिक्षा की खासकर उच्च शिक्षा की त्रासद स्थिति है. आज इस क्षेत्र में निम्न स्तरीय राजनीति के कारण शिक्षा व्यवस्था पतन के गर्त में है. इस क्षेत्र में शिक्षा का विश्वस्तरीय उन्नयन भारती के विकास में भी सहायक होगा. भाषा के उपादेयता तथा प्रतिष्ठा के लिये नितांत आवश्यक शर्त है कि किसी भाषा में किस तरह का ज्ञान सृजित, किस तरह का ज्ञान संग्रहित तथा किस तरह का ज्ञान प्रसारित हो रहा है? ऊपर जैसा कि लिखा गया है कि हर विश्वविद्यालय को यह अधिकार होना चाहिए कि वह अपने यहाँ शोध, अध्यापन तथा प्रशासन के लिये आवश्यकतानुसार अपनी इच्छा से माध्यम का चयन करे लेकिन साथ ही जरूरी है कि प्रत्येक हिन्दी भाषी राज्य में कम से कम एक उत्कृष्ट विश्वविद्यालय ऐसा जरूर हो जहॉ ज्ञान के हर विधा का स्थान हो तथा वहाँ अध्यापन तथा शोध की आधार भाषा मात्र हिन्दी हो. इस तरह के विद्यापीठ हिन्दी में ज्ञान के उद्‌गम स्थल होंगे.
हिन्दी भाषा में साहित्य तथा ज्ञान-विज्ञान में लेखन को हर स्तर पर प्रोत्साहित किए जाने की आवश्यकता है. इसके लिये भरपूर संख्या में पुरस्कारों, अनुदानों, कार्यक्रमों तथा परियोजनाओं की व्यवस्था स्थानीय, प्रांतीय, राष्ट्रीय तथा अंतर्राष्ट्रीय स्तरों पर होनी चाहिये. विश्व के प्रत्येक देश, बड़े शहरों तथा अधिक से अधिक शिक्षण संस्थानों में हिन्दी के/में अध्यापन तथा शोध की व्यवस्था होनी चाहिये. खासकर अहिन्दीभाषी क्षेत्रों में तथा विदेशों में हिन्दी के प्रचार-प्रसार को अभियान के तहत चलाना चाहिए.
लेखन की मात्रा तथा गुणवत्ता में विस्तार के साथ ही हिन्दी पढ़ने वाले की संख्या तथा पढ़ने वालों के लिये ज्यादा पढ़ने हेतु सुविधाएँ तथा अवसरों को बढ़ाने की आवश्यकता है. इसके लिये सर्वप्रथम आवश्यक है कि हिन्दी भूभाग से निरक्षरता को अविलम्ब मिटाया जाए तथा हिन्दी में प्रकाशन को प्रोत्साहित किया जाय। हिन्दी के पुस्तकों के प्रकाशन पर तथा उस प्रक्रिया में प्रयुक्त हर सामग्री तथा चल-अचल सम्पत्ति कर मुक्त हो तथा यथासम्भव सब्सिडी भी हिन्दी प्रकाशन उद्योग को मिले. भारत तथा समस्त विश्व के कोने-कोने में जितना ज्यादा सम्भव हो हिन्दी पुस्तकालयों की स्थापना की जानी चाहिये. इसके अलावा ऐसे प्रतियोगिताओं का आयोजन हो जिससे ज्यादा से ज्यादा लोग हिन्दी पढ़ने तथा हिन्दी में पढ़ने को प्रेरित हों. 
हिन्दी भाषी राज्यों के प्रशासन की भाषा हिन्दी मात्र होनी चाहिए. विदेशी आगतों, पर्यटकों तथा निवेशकों से संवाद के लिये दुभाषिये रखे जा सकते हैं. राजकीय सेवाओं में भर्ती के लिये हिन्दी का यथेष्ठ ज्ञान अनिवार्य अर्हता होनी चाहिये. यहॉ यह भी रेखांकित करना आवश्यक है कि हिन्दी के प्रचार-प्रसार की प्राथमिक भूमिका हिन्दी भाषी राज्यों की है न कि केंद्र सरकार की.
उपर्युक्त त्वरित सुझाव तो मूलभूत हैं लेकिन आवश्यकता इस विषय पर घोर चिंतन तथा शोध की है जिससे हिन्दी को विश्वभाषा के रूप में स्थापित किया जा सके. जहाँ तक इस मुद्दे को लेकर व्यय की बात है, जैसा कि ऊपर के विवरण से स्पष्ट है कि भारती का प्रसार मात्र भावनात्मक प्रश्न नहीं है; इसका महत्व आर्थिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक तथा अंतरराष्ट्रीय है. अतएव इसके प्रचार पर खर्च को निवेश तथा सामाजिक कल्याण के तहत अनिवार्य मानना चाहिए.
- नीरज कुमार झा 
(मध्यप्रदेश हिन्दी ग्रन्थ अकादमी द्वारा प्रकाशित पत्रिका रचना के मई- अगस्त २००६ अंक में प्रकाशित)

शनिवार, 11 दिसंबर 2010

भारती का भविष्य (११ व अंतिम)


यहाँ यह भी स्मरण रखने की आवश्यकता है कि जब भी हिन्दी के प्रसार का प्रयास हो तो उसमें किसी तरह के वर्चस्व की भावना बिलकुल नहीं होनी चाहिए. हिन्दी का प्रत्येक भारतीय भाषा से सहयोगात्मक रवैया होना चाहिये तथा नीति सहविकास की होनी चाहिये. यहाँ तक कि हिन्दी भाषी क्षेत्र में भी हिन्दी को शिक्षण संस्थानों पर थोपना भी अनुचित होगा. यह हर सामान्य शिक्षण संस्थान का - विद्यालय से लेकर विश्वविद्यालय तक - अधिकार होना चाहिए कि वह आवश्यकतानुसार अपने शोध तथा शिक्षण के माध्यम का चयन करे. आज अँगरेज़ी का विरोध वास्तव में अप्रासंगिक हो चुका है। इस भाषा में भारतीयों की प्रवीणता देश के लिये लाभदायक सिद्ध हो रही है. आज देश में जरूरत है कि ज्यादा लोग अच्छी अँगरेज़ी सीखें.यह देश की आर्थिक प्रगति के लिये आवश्यक है. लेकिन यह ध्यान रखना नितांत आवश्यक है कि अँगरेज़ी एक साधन है न कि साध्य. अँगरेज़ी सीखना चाहिए लेकिन एक उपकरण के रूप में. सीखना गलत नहीं है, गलत है अँगरेज़ी के प्रति समर्पण, उसकी अराधना. गलत है भारती का तिरस्कार, उसकी अवमानना.

जहाँ तक विदेशों में हिन्दी के प्रचार-प्रसार की बात है उसमें भी साम्राज्यवादी प्रवृत्ति लेशमात्र नहीं होनी चाहिए. इसके विपरीत भारती के प्रसार का उद्देश्य भाषाई साम्राज्यवाद, जो वृहत्तर साम्राज्यवाद का ही हिस्सा है, का प्रतिकार होना चाहिए. साम्राज्यवाद का प्रतिकार वैकल्पिक साम्राज्यवाद नहीं वरन्‌ अन्य भाषाओं का संरक्षण है. आज यदि विश्व की पारिस्थितिकी की आवश्यकता जैव विविधता है तो विश्व समाज की जरूरत इसकी सांस्कृतिक विविधता की रक्षा है. भारती के प्रसार का प्रयास परस्पर आदान प्रदान के आधार पर हो. हिन्दी भाषी विश्व के तमाम संस्कृतियों से उनकी भाषा सीखकर सीधा सम्पर्क कायम करें तथा उसके साथ ही भारती के प्रसार का प्रयास करें, यही उचित होगा.

भारती के सशक्त बनाने के लिये आधारभूत आवश्यकता है कि हिन्दी भाषी क्षेत्र का आर्थिक विकास तीव्र गति से हो. भाषा की प्रतिष्ठा के लिये मात्र यह आवश्यक नहीं है कि वह भाषा कितने बड़ी संख्या में लोगों के द्वारा बोली जाती है. महत्वपूर्ण यह है कि भाषियों की आर्थिक स्थिति क्या है? आर्थिक विकास के लिये राजनीति तथा प्रशासन को इस दिशा में प्रवृत्त करने की आवश्यकता है. प्रवृत्त करने से अभिप्राय है कि राजनीतिक तथा मेजतंत्री स्वयं को आर्थिक विकास को बाधित करने से रोकें.

उपर्युक्त तथ्य तो मूलभूत है लेकिन जो विषय प्राथमिक तथा ज्वलंत है, वह इस क्षेत्र में शिक्षा की खासकर उच्च शिक्षा की त्रासद स्थिति है. आज इस क्षेत्र में निम्न स्तरीय राजनीति के कारण शिक्षा व्यवस्था पतन के गर्त में है. इस क्षेत्र में शिक्षा का विश्वस्तरीय उन्नयन भारती के विकास में भी सहायक होगा. भाषा के उपादेयता तथा प्रतिष्ठा के लिये नितांत आवश्यक शर्त है कि किसी भाषा में किस तरह का ज्ञान सृजित, किस तरह का ज्ञान संग्रहित तथा किस तरह का ज्ञान प्रसारित हो रहा है? ऊपर जैसा कि लिखा गया है कि हर विश्वविद्यालय को यह अधिकार होना चाहिए कि वह अपने यहाँ शोध, अध्यापन तथा प्रशासन के लिये आवश्यकतानुसार अपनी इच्छा से माध्यम का चयन करे लेकिन साथ ही जरूरी है कि प्रत्येक हिन्दी भाषी राज्य में कम से कम एक उत्कृष्ट विश्वविद्यालय ऐसा जरूर हो जहॉ ज्ञान के हर विधा का स्थान हो तथा वहाँ अध्यापन तथा शोध की आधार भाषा मात्र हिन्दी हो. इस तरह के विद्यापीठ हिन्दी में ज्ञान के उद्‌गम स्थल होंगे.

हिन्दी भाषा में साहित्य तथा ज्ञान-विज्ञान में लेखन को हर स्तर पर प्रोत्साहित किए जाने की आवश्यकता है. इसके लिये भरपूर संख्या में पुरस्कारों, अनुदानों, कार्यक्रमों तथा परियोजनाओं की व्यवस्था स्थानीय, प्रांतीय, राष्ट्रीय तथा अंतर्राष्ट्रीय स्तरों पर होनी चाहिये. विश्व के प्रत्येक देश, बड़े शहरों तथा अधिक से अधिक शिक्षण संस्थानों में हिन्दी के/में अध्यापन तथा शोध की व्यवस्था होनी चाहिये. खासकर अहिन्दीभाषी क्षेत्रों में तथा विदेशों में हिन्दी के प्रचार-प्रसार को अभियान के तहत चलाना चाहिए.

लेखन की मात्रा तथा गुणवत्ता में विस्तार के साथ ही हिन्दी पढ़ने वाले की संख्या तथा पढ़ने वालों के लिये ज्यादा पढ़ने हेतु सुविधाएँ तथा अवसरों को बढ़ाने की आवश्यकता है. इसके लिये सर्वप्रथम आवश्यक है कि हिन्दी भूभाग से निरक्षरता को अविलम्ब मिटाया जाए तथा हिन्दी में प्रकाशन को प्रोत्साहित किया जाय। हिन्दी के पुस्तकों के प्रकाशन पर तथा उस प्रक्रिया में प्रयुक्त हर सामग्री तथा चल-अचल सम्पत्ति कर मुक्त हो तथा यथासम्भव सब्सिडी भी हिन्दी प्रकाशन उद्योग को मिले. भारत तथा समस्त विश्व के कोने-कोने में जितना ज्यादा सम्भव हो हिन्दी पुस्तकालयों की स्थापना की जानी चाहिये. इसके अलावा ऐसे प्रतियोगिताओं का आयोजन हो जिससे ज्यादा से ज्यादा लोग हिन्दी पढ़ने तथा हिन्दी में पढ़ने को प्रेरित हों. 

हिन्दी भाषी राज्यों के प्रशासन की भाषा हिन्दी मात्र होनी चाहिए. विदेशी आगतों, पर्योटकों तथा निवेशकों से संवाद के लिये दुभाषिये रखे जा सकते हैं. राजकीय सेवाओं में भर्ती के लिये हिन्दी का यथेष्ठ ज्ञान अनिवार्य अर्हता होनी चाहिये. यहॉ यह भी रेखांकित करना आवश्यक है कि हिन्दी के प्रचार-प्रसार की प्राथमिक भूमिका हिन्दी भाषी राज्यों की है न कि केंद्र सरकार की.

उपर्युक्त त्वरित सुझाव तो मूलभूत हैं लेकिन आवश्यकता इस विषय पर घोर चिंतन तथा शोध की है जिससे हिन्दी को विश्वभाषा के रूप में स्थापित किया जा सके. जहॉ तक इस मुद्दे को लेकर व्यय की बात है, जैसा कि ऊपर के विवरण से स्पष्ट है कि भारती का प्रसार मात्र भावनात्मक प्रश्न नहीं है; इसका महत्व आर्थिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक तथा अंतर्राष्ट्रीय है. अतएव इसके प्रचार पर खर्च को निवेश तथा सामाजिक कल्याण के तहत अनिवार्य मानना चाहिए.

- नीरज कुमार झा 

(मध्यप्रदेश हिन्दी ग्रन्थ अकादमी द्वारा प्रकाशित पत्रिका रचना के मई- अगस्त २००६ अंक में प्रकाशित मेरे आलेख का अंश)

सोमवार, 6 दिसंबर 2010

भारती का भविष्य (भाग १०)

उन्नति का मार्ग

हिन्दी को सशक्त बनाने का उत्तरदायित्व हर हिन्दी भाषी का है. यह उसके लिये मात्र भावनात्मक प्रश्न नहीं है। इससे उसका आर्थिक, राजनीतिक तथा सांस्कृतिक हित जुड़ा है. साथ ही यह भी समझने की आवश्यकता है कि अँगरेज़ी भाषा का वह कितना गहन अध्ययन  करे, कितना भी  इसका अभ्यास करे, चूँकि  यह एक विदेशी भाषा है और विदेशी संस्कृति की अभिव्यक्ति है, वह इस भाषा में उस स्तर का प्रावीण्य प्राप्त नहीं कर सकता है जो देशज भाषा में उसे सहज प्राप्त होता है. अँगरेज़ी भाषाइयों में उसकी पहचान तो एक शरणार्थी की ही रहेगी चाहे वह कुछ भी कर ले। यदि वह अँगरेज़ी में प्राकृतिक प्रवीणता हासिल कर भी लेता है तो वह ऐसा अपनी संस्कृति से बिलगाव की कीमत पर करता है। अतः प्रत्येक हिन्दी भाषी  स्वयं तथा हर तरह तथा हर स्तर के संगठन, जिसपर उसका प्रभाव है, में प्रयास करे कि हिन्दी के प्रभाव में वृद्धि हो। ऐसी स्थिति में ही सरकारी प्रयासों में भी गम्भीरता तथा ईमानदारी दिखने की सम्भावना है।
- नीरज कुमार झा 

(मध्यप्रदेश हिन्दी ग्रन्थ अकादमी द्वारा प्रकाशित पत्रिका रचना के मई- अगस्त २००६ अंक में प्रकाशित मेरे आलेख का अंश)

रविवार, 5 दिसंबर 2010

भारती का भविष्य (भाग ९)

उन्नति के आधार

हिन्दी निश्चित रूप से पराभव की स्थिति में है लेकिन इसके उदय के प्रबल आधार उपस्थित हैं। आवश्यकता इच्छा शक्ति को जाग्रत करने तथा सक्रिय होने की है। हिन्दी चीनी भाषा के बाद दुनियाँ की दूसरी सबसे ज़्यादा बोले जाने वाली देशज भाषा है। देशज भाषा के रूप में अँगरेजी  तीसरे स्थान पर है तथा स्पेनी भाषियों की संख्या उनसे ज्यादा पीछे नहीं है। विदेशों में फैले दो करोड़ से ऊपर अप्रवासी भारतीय तथा भारतीय मूल के लोग इस भाषा के विस्तार के सक्षम संवाहक हो सकते हैं। हिन्दी चलचित्र उद्योग विश्व में हालीवुड के बाद दूसरा स्थान रखता है। आज भी देश में अंग्रेजी अखबारों से बहुत ज्यादा पाठक संख्या हिन्दी अखबारों की है। इलेक्ट्रानिक मीडिया में भी हिन्दी चैनल ही सबसे ज्यादा देखे जाते हैं। ये प्रमाण हिन्दी के सबल आधार की ओर इंगित करते हैं। यह आधार वास्तव में पिछड़े  क्षेत्र के विपन्न जन हैं। उनके सम्मान तथा समृद्धि के लिये भी आवश्यक है कि हिन्दी का विकास हो। हिन्दी में अभी काफी संभावनाएँ मौजूद  हैं लेकिन यह भाषा आज इस स्थिति में नहीं है कि यह अपने बल पर विश्व भाषा बन सके। इसके लिये विशेष प्रयासों की आवश्यकता है। इसके लिये विशेष निवेश की आवश्यकता है। ऐसा भी नहीं है कि  वैज्ञानिक तथा तकनीकी विकास के लिये हिन्दी पर जोर अवरोधक हो। दुनियॉ के अनेक देशों ने स्वदेशी भाषा के माध्यम से ही ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में स्वतंत्र प्रगति की है तथा इन क्षेत्रों में उनकी उपलब्धियॉ आंग्ल भाषी देशों से किसी भी तरह से कमतर नहीं है। जर्मनी, जापान तथा रूस सहित अनेक यूरोपीय देश इसके उदाहरण हैं।
- नीरज कुमार झा
(मध्यप्रदेश हिन्दी ग्रन्थ अकादमी द्वारा प्रकाशित पत्रिका रचना के मई- अगस्त २००६ अंक में प्रकाशित मेरे आलेख का अंश

शुक्रवार, 3 दिसंबर 2010

भारती का भविष्य (भाग ८)


दूसरा पहलू जो समाज विज्ञानों से ही संबंध रखता है वह है  मानव अधिकारों की उपलब्धता का। हिन्दी भाषियों के जीवन स्तर को सुधारने के लिये मानव अधिकारों की सुनिश्चितता भी आवश्यक है। यह तथ्य स्थापित हो चुका है कि अंतर्राष्ट्रीय समुदाय द्वारा निर्धारित मानवाधिकार आर्थिक विकास, सांस्कृतिक उन्नति तथा जनतंत्र के सबलीकरण के आधार हैं। भारतीय जनतंत्र के शरीर को सबल तथा स्वस्थ बनाने के लिये अधिकारों की उपलब्धता के व्यापक विस्तार की आवश्यकता है। सत्ता इस दिशा में मंथर गति से चलती है और वह भी पीछे से धकेलने पर। वास्तव में सत्तासीनों के अपने हित होते हैं जो जनता के हितों से सामान्यतः विपरीत ही होते हैं। आवश्यकता होती है जनजागृति की। सजग जन अपने अधिकारों को माँगे  तथा हासिल करें, यही मार्ग है सशक्तीकरण का - व्यक्तियों तथा समाज का। इसके लिये भी आवश्यक है भाषा के उपादेयता के विस्तार की। मानव अधिकार आन्दोलन तब तक सफल नहीं होगा, जब तक इस विषय के साहित्य, शोध तथा सिद्धांत जनता के बीच उनकी भाषा में प्रस्तुत नहीं किये जाते हैं।



इस तरह से भाषा का महत्व भावनात्मक के अलावा सांस्कृतिक, आर्थिक या राजनीतिक भी है। इन तथ्यों पर विचार के उपरांत भाषा का महत्व राष्ट्रशक्ति के एक महत्वपूर्ण तत्व के रूप में भी विचारणीय है। इस दृष्टिकोण से भाषा का महत्व अंतर्राष्ट्रीय है। आज राष्ट्रशक्ति में मृदु शक्ति की महत्ता बढ़  रही है। सैन्य तथा अर्थ बल के अलावा शिक्षा, संस्कृति, कला, साहित्य, दर्शन तथा राजनीतिक व्यवस्था  की प्रतिष्ठा भी राष्ट्रशक्ति के प्रमुख तत्वों में गण्य हैं। शक्ति के ऐसे तत्व मृदुशक्ति के रूप में जाने जाते हैं।  ऐसे में भाषा की प्रतिष्ठा भी राष्ट्रशक्ति का प्रमुख तत्व हो सकता है। फ्रांस, जर्मनी तथा रूस की शक्ति तथा प्रतिष्ठा का एक अवयव उनकी भाषाएँ भी हैं। अँगरेज़ी आंग्लभाषी देशों की शक्ति को परिलक्षित ही नहीं वरन्‌ पुष्ट भी करती है। राष्ट्रशक्ति के विस्तार के लिये भी राष्ट्रभाषा का अंतर्राष्ट्रीय जगत में सम्मान भी महत्वपूर्ण है।

जहॉ तक तार्किकता की बात है भाषा का उस दृष्टिकोण से तो महत्व  है ही लेकिन इसका सीधा संबंध भावना से है। भाषा राष्ट्रीयता, संस्कृति तथा संस्कारों के केंद्र में है। वास्तव में भावना का अपना तर्क है, जो तर्कों  में सर्वोपरि है। सवाल यह उठता है कि क्या पराश्रित उन्नति सच्ची उन्नति है? क्या सम्पन्नता अस्मिता के मूल्य पर अभीष्ट है? क्या सांस्कृतिक स्वायत्तता खोकर राजनीतिक स्वतंत्रता का कोई अर्थ रह जाता है? ऐसे बहुत सारे  मुद्दे हैं जहॉ भावना ही अंतिम तर्क है। इस मुद्दे पर तर्कों का मूल यही है कि भाषा का प्रश्न सभी तर्कों से परे है।

- नीरज कुमार झा
(मध्यप्रदेश हिन्दी ग्रन्थ अकादमी द्वारा प्रकाशित पत्रिका रचना के मई- अगस्त २००६ अंक में प्रकाशित मेरे आलेख का अंश

भारती का भविष्य (भाग ७)

हिन्दी भाषियों के आर्थिक विकास से हिन्दी का विकास तथा हिन्दी के विकास से उनका आर्थिक विकास तो जुड़ा है ही लेकिन भाषा का प्रश्न जीवन के अन्य क्षेत्रों से भी असम्पृक्त नहीं है। इसका स्पष्ट संबंध राजनीति की प्रकृति में सुधार तथा संस्कृति के परिष्कार से है। भारत के हिन्दी क्षेत्र का पराभव प्रधानतया इस क्षेत्र की निम्न स्तरीय राजनीति के कारण है। हिन्दी भाषी क्षेत्र में स्वस्थ तथा गतिशील सामाजिक व्यवस्था के लिये आवश्यक है कि समाज विज्ञानों में उपलब्ध ज्ञान जनता तक प्रेषित हो, जो हो नहीं रहा है। कारण है वही कि भारती साहित्य की भाषा तो है लेकिन समाज विज्ञानों की नहीं। समाज संबंधी चिंतन तथा स्थापनाएँ  अभी भी भारत में आयातित ही हैं; उनमें मौलिकता का अभाव है। वे लोक जीवन से जुड़े नहीं हैं यदि जुड़े भी हैं तो समाजविज्ञान भारतीय परिदृश्य में हाशिये पर हैं। कारण है कि समाज विज्ञानियों ने अँगरेज़ी भाषा  को अपने अध्ययन, शोध तथा ज्ञान विस्तार का माध्यम बना रखा है जिस कारण से वे आम जनता तक पहुँच नहीं पाते हैं। सामाजिक चिंतन तथा ज्ञान जनतांत्रिक आधार के अभाव में प्रभावहीन रह जाते हैं। दूसरी तरफ जनता उच्चतर चेतना के अभाव में पिछड़ी तथा दमित रह जाती है। दूसरे शब्दों में ज्ञान जनसमर्थन के अभाव में प्रभावहीन रहता है तथा जन ज्ञान के अभाव में निःशक्त। साहित्य की बात लें तो हिन्दी साहित्य की स्थिति की समस्या गुणवत्ता की कम तथा प्रसार की ज्यादा है। प्रसार सामान्य जन में निरक्षरता, अशिक्षा, निर्धनता तथा निम्न जीवन स्तर के कारण बाधित है। प्रसार के अभाव में अच्छा साहित्य पनप भी नहीं पाता है। लोकग्राह्यता के अभाव के कारण प्रकाशक सरकारी खरीदी पर निर्भर करते हैं जिसके कारण साहित्य का प्रसार नहीं वरन्‌ भ्रष्टाचार का विस्तार होता है तथा लेखक प्रकाशक का मुहताज रहता है। ऐसे कुंठित साहित्यकारों से क्या उम्मीद की जा सकती है? साहित्य है क्योंकि इतनी बड़ी  आबादी से सृजन का विलोप हो ही नहीं सकता है। फ़िर भी समाज विज्ञानियों की अपेक्षा हिन्दी साहित्यकारों की  समाज में ज़्यादा  प्रतिष्ठा तथा प्रभाव है क्योंकि वे ज़्यादा लोगों के लिये सुलभ हैं।

- नीरज कुमार झा
(मध्यप्रदेश हिन्दी ग्रन्थ अकादमी द्वारा प्रकाशित पत्रिका रचना के मई- अगस्त २००६ अंक में प्रकाशित मेरे आलेख का अंश

मंगलवार, 30 नवंबर 2010

भारती का भविष्य (भाग ६)

भाषा की उन्नति की अभीष्टता
सर्वप्रथम अँगरेज़ी  भाषा के महत्ता को बताने के लिये जिस आर्थिक विकास की दुहाई दी जाती है उसी पर विचार करना आवश्यक है। आर्थिक दृष्टिकोण से तो वैसे पूरा भारत ही  पिछड़ा है लेकिन हिन्दी भाषी क्षेत्र की स्थिति और भी दयनीय है। उत्तर तथा पूर्व भारत का विशाल हिन्दी भाषी क्षेत्र विश्व की आबादी के प्रायः निकृष्टतम जीवनस्तर वाले लोगों का है। इस क्षेत्र को बिमारू क्षेत्र भी कहा जाता है। बिमारू शब्द बिहार, मध्यप्रदेश, राजस्थान तथा उत्तर प्रदेश के प्रथम अक्षरों से बना एक्रोनिम है। इसे काउबेल्ट, गोबरपट्टी, तथा हिन्दी हिंटरलैंड आदि नामों से भी जाना जाता है। कहने का अर्थ यह है कि यह क्षेत्र पिछड़ेपन का पर्याय बन चुका है। कारणों का विश्लेषण यहॉ नहीं किया जा सकता है लेकिन ऐसे लोगों की भाषा ही यदि उपादेयता न रखती हो तो इनके द्वारा प्राप्त शिक्षा का महत्व वैसे ही कम हो जाता है। शिक्षा यदि गरीबी का एक उपचार है तो हिन्दी माध्यम में शिक्षित जन कम प्रभावशाली उपचार पा रहे हैं क्योंकि रोजगार तथा व्यवसाय के अधिकांश क्षेत्र उनके लिये प्रतिबंधित हैं तथा देश के उच्चतर स्थानों तक पहुँचने से वे हमेशा के लिये वंचित हैं। अँगरेज़ी का वर्चस्व उनकी नागरिकता के आधार समानता के सिद्धांत पर भी चोट करता है। यह उनके सम्मान पर आघात तथा उनके जीवन अवसरों को बाधित कर रहा है। ऐसी स्थिति में इस क्षेत्र के वासियों के विकास के लिये आवश्यक है कि देश के हिन्दी भाषी क्षेत्र में कम से कम भारती की प्रधानता स्थापित हो। समाज के पिछड़े तबको के लिए तो यह और भी आवश्यक है। उनकी कई पीढीयाँ   समुचित शिक्षा के अवसरों के अभाव में अँगरेज़ी में दक्षता प्राप्त करने में गुजर  जायेंगी। हिन्दी का विकास देश के बड़े हिस्से के आर्थिक विकास के लिये ही नहीं वरन्‌ सामाजिक न्याय के लिये भी अनिवार्य है।  भाषा का विकास आर्थिक विकास की दो पद्धतियों - लोकोन्मुखी तथा वृद्धिकेंद्रित - में से  प्रथम के लिये भी आवश्यक है। वास्तव में हिन्दी क्षेत्र में किसी तरह का व्यवसाय या रोजगार करने के लिये हिन्दी पर्याप्त ही नहीं बल्कि अनिवार्य भी है। कोई भी व्यवसाय या सेवा इस क्षेत्र में बिना हिन्दी के ज्ञान के सम्भव ही नहीं है। मात्र यहॉ अँगरेज़ी का हौआ बनाया गया है ताकि अभिजन अपना प्रभुत्व बनाए रख सके। संक्षेप में उपर्युक्त विवरण का उद्देश्य यह स्पष्ट करना है कि हिन्दी भाषी लोगों के आर्थिक विकास तथा सम्मान के लिये आवश्यक है कि हिन्दी की उपादेयता तथा सम्मान को सशक्त किया जाय। इसके लिये मात्र अँगरेज़ी के मायाजाल को तोड़ने  की आवश्यकता है। अँगरेज़ी सीखना जरूरी है तो सिर्फ एक हुनर के रूप में।
- नीरज कुमार झा
(मध्यप्रदेश हिन्दी ग्रन्थ अकादमी द्वारा प्रकाशित पत्रिका रचना के मई- अगस्त २००६ अंक में प्रकाशित मेरे आलेख का अंश)

रविवार, 7 नवंबर 2010

भारती का भविष्य (भाग ५)

उपर्युक्त संक्षिप्त विवरण का उद्देश्य भारत देश में ही भारती का दोयम दर्जे की भाषा के रूप में पतन को रेखांकित करना है. यह अत्यंत त्रासद विडम्बना है कि किसी देश की राष्ट्रभाषा स्वदेश में ही द्वितीयक श्रेणी की भाषा सिद्ध हो रही है. हालांकि वैश्वीकरण के इस युग में भारतीयों की आंग्ल भाषा में प्रवीणता भारत की विशेषता के रूप में देखी जाती है, खासकर चीन की तुलना में. चीन से जब भी भारत की तुलना आर्थिक विकास के क्षेत्र में की जाती है तो भारत में अँगरेज़ी के प्रचलन को भारत के पक्ष में देखी जाती है. चीन भी इस कमी को दूर करने में युद्धस्तर पर लगा हुआ है. एक आकलन के अनुसार चीन में अभी छ: करोड़ लोग अँगरेज़ी का अध्ययन कर रहे हैं. ऐसा समय दूर नहीं कि जब दुनियाँ में सबसे ज़्यादा आंग्लभाषी चीन में होंगे. अँगरेज़ी सीखना आज समय की माँग है. इसे सीखना प्राय: विश्व बाज़ार में प्रतियोगी बने रहने की आवश्यकता है. अँगरेज़ी सीखना ग़लत भी नहीं है और अँगरेज़ी का विरोध तो देशवासियों के लिये अत्यंत अहितकर है, खासकर गरीब तबको के लिये. यदि अँगरेज़ी हटायी जाती है तो यह सरकारी विद्यालयों से ही हटेगी जिसकी सबसे ज़्यादा मार गरीबों पर पड़ेगी. गरीबी दूर करने का यदि एक माध्यम शिक्षा है तो शिक्षा अँगरेज़ी माध्यम में इस उद्देश्य को प्राप्त करने में और भी प्रभावी होगी. यहाँ पैरोकारी जैसा कि स्पष्ट है कि अँगरेज़ी का विरोध नहीं है बल्कि भारती की प्रतिष्ठा एवं उपादेयता में विस्तार कर इसे अधिक ग्राह्य बनाने तथा एक दूरगामी लक्ष्य के रूप में इसे विश्वभाषा के रूप में प्रतिष्ठित करने के उपायों पर विचार करना है है. लेकिन इससे पूर्व ऐसा करना क्यों आवश्यक है उसपर विचार करना समीचीन है क्योंकि जैसा कि आगे स्पष्ट किया गया है कि यह मात्र भावना का प्रश्न नहीं है.
- नीरज कुमार झा
(मध्यप्रदेश हिन्दी ग्रन्थ अकादमी द्वारा प्रकाशित पत्रिका रचना के मई- अगस्त २००६ अंक में प्रकाशित मेरे आलेख का अंश)

शनिवार, 6 नवंबर 2010

भारती का भविष्य (भाग ४)

चिंता तथा चिन्तन का विषय

प्राय: प्रत्येक हिन्दीभाषी हिन्दी को एक विश्वभाषा के रूप में देखना चाहता है लेकिन स्थिति  यह है कि भारत  के हिन्दी  क्षेत्र में ही यह भाषा अपनी अस्मिता  की रक्षा के लिये संघर्षरत है. इसकी उपादेयता पर भी प्रश्नचिह्न लग चुका है. यही कारण  है कि विपन्न वर्ग के जन भी  अत्यंत  त्याग  कर अपने बच्चों को अँगरेज़ी   माध्यम में शिक्षा दिलवाते  हैं. विकल्पहीनता  की स्थिति में कोई भी अपने पालितों को हिन्दी  माध्यम के विद्यालय में भेजता  है. आज की अर्थव्यवस्था में अँगरेज़ी का बोलबाला तो  निर्विवाद है.  कृषि,  लघु उद्यम, श्रम को छोड़ दें तो एक छोटी सी नौकरी पाने के लिये भी  अँगरेज़ी का ज्ञान अनिवार्य योग्यता का हिस्सा हो चुका है. प्रबंध की भाषा तो अँगरेज़ी है ही. अगर लोगों की मनोस्थिति को मापदंड माने तो हिन्दी एक भाषा के रूप में सम्मान तथा  उपादेय्या निश्चित तौर पर समाप्त हो चुकी है.  इसका अस्तित्व महज मजबूरी या आनुष्ठानिक है.  जहाँ  भारत का  मध्यवर्ग  अँगरेज़ी  को अपनाने की पुरज़ोर  कोशिश कर रहा है  वहीं  भारतीय  अभिजन में तो यह घरेलू बोलचाल की भी भाषा नहीं रह गयी है. सिर्फ़ राजनी्विक अभिजन का एक छोटा  हिस्सा अपवाद हो सकता है. यहाँ तक कि हिन्दी फिल्मों के अभिनेता तथा अभिनेत्रियाँ, जो हिन्दी में  लच्छेदार  संवाद बोलते नज़र आते हैं, अपनी निजी तथा सामाजिक जीवन में इस भाषा का प्रयोग करना अपना तौहीन मानते हैं. यह विचार की भाषा तो रह ही नहीं गयी है.  अच्छे शोध, अच्छे विचार तथा शायद अच्छे साहित्य के लिये भी हिन्दी भाषी अँगरेज़ी भाषा पर निर्भर करते हैं. साहित्य में तो भले ही इस भाषा की महत्ता को कमतर  आँकना उचित  नहीं हो लेकिन मानविकी को छोड़ दें तो  समाज, प्राकृतिक  तथा भौतिक विज्ञानों में इस भाषा का प्रयोग श्रेष्ठ संस्थानों में अपवाद  स्वरूप ही होता है. तकनीक या प्रौद्योगिकी प्रशिक्षण, जिसका उद्देश्य मात्र विज्ञान को व्यवहारिक स्वरूप प्रदान  करना है में भी भारती का प्रयोग नहीं के बराबर है. जिन लोगों ने हिन्दी को अपने शोध या सृजन का  माध्यम बनाया हुआ है वे सामान्यतया  अँगरेज़ी के प्रयोग में असमर्थ हैं. हिन्दी  भाषी राज्यों के प्रशासन में अँगरेज़ी के प्रयोग को नीति के अंतर्गत हतोत्साहित किया जा्वा है लेकिन उसके बावजूद निहायत ही देसी किस्म के, आंचलिक शिक्षण संस्थानों  में पढ़े बड़े, मझोले और यहाँ तक की छोटे मेजतंत्रीगण  (ब्यूरोक्रैट्स) भी मिली जुली तथा टूटी फूटी ही सही, अँगरेज़ी  के उपयोग को अपने साहबीयत  का अभिन्न हिस्सा मानते  हैं. यहाँ तक कि संसद में भी हिन्दी  क्षेत्र के जनप्रतिनिधि  भी यदि  बोलने की स्थिति में हैं तो अँगरेज़ी ही बोलते  हैं. बक़ौल  उपराष्ट्रपति सह राज्यसभा अध्यक्ष श्री भैरों सिंह शेखावत, संसद में सांसद हिन्दी बोलने से कतराते हैं या यदि बोलते हैं तो उन्हें गम्भीरता से नहीं लिया जाता है (टाइम्स अव इंडिया, पटना, ३१ मई २००५). उच्च्वर न्यायालयों में तो  हिन्दी को अभी तक अपनाया भी नहीं गया है. 
- नीरज कुमार झा
(मध्यप्रदेश हिन्दी ग्रन्थ अकादमी द्वारा प्रकाशित पत्रिका रचना के मई- अगस्त २००६ अंक में प्रकाशित मेरे आलेख का अंश)

शुक्रवार, 5 नवंबर 2010

भारती का भविष्य (भाग ३)

उदारवादी  वैश्वीकरण के अंतर्गत भारतीय संस्कृति के अस्मिता को लेकर खतरों को रेखांकित करने का यह अर्थ कदापि नहीं है कि उदारवाद या वैश्वीकरण भारत या भारतीय संस्कृति के  लिये अहितकर हैं. वास्तव में  भारतीय संस्कृति के अवमूल्यन का कारण आज़ादी के बाद उदारवाद से विमुख होना था. स्वतंत्रता के पश्चात भारत में मेजतंत्रीय समाजवाद को अर्थनीति का आधार बनाया गया. आशा के विपरीत लेकिन इस व्यवस्था  के अनुरूप  इसके अंतर्गत विकास की गति अत्यंत शिथिल रही. इस काल में न सिर्फ भारतीयों की उद्यमिता  दमित रही बल्कि उनकी सर्जनात्मक  क्षमताओं का भी क्षरण हुआ. यह भारतीय इतिहास का सबसे विभ्रमकारी  युग था  जिसमें निहित  स्वार्थों के द्वारा अनधीनता  के नाम पर दासता, विकास के नाम पर विपन्नता और ज्ञान के नाम पर प्रचार परोसा गया. हालांकि इस व्यवस्था की कमजोरियों ने ही भारत  में उदारवाद  का मार्ग प्रशस्त किया लेकिन आज भी उदारवाद भारत के  मध्यवर्ग में एक घृणित शब्द है, खासकर भाषा तथा साहित्य के पुरोधाओं  के मध्य. उदारवाद अपनी असीमित क्षमता के आधार  पर भारतीयों के मध्य सम्बल बन उपस्थित है और इसके लाभ बेहतर  विकास दर और घटती गरीबी के रूप में स्पष्ट हैं. फ़िर भी उदारवाद  को कम ही सराहा जाता  है. इसमें निश्चित रूप  से निहित स्वार्थों की भूमिका है लेकिन ज़्यादा बड़ा कारण शिक्षा के नाम पर प्रचार के शिकार लोगों की मानसिकता  का है. आर्थिक विकास के द्वारा ही भाषा, तथा संस्कृति भी, सुरक्षित रखी  जा सकती  है. विपन्नता  की स्थिति में संस्कृति कभी भी फल-फूल नहीं सकती  है. उदारवाद तथा वैश्वीकरण भारत को अवसर प्रदान कर रहा है कि भारत अपनी काबिलियत विश्व में साबित करे. कई भारतीय उद्यमी ऐसा कर भी रहे हैं. आवश्यकता उन अवसरों के विस्तार की है जिससे जन-जन में छिपी उद्यमिता तथा सृजनात्मक क्षमताएँ  विकसित हो सके. जरूरत  है भारत को विश्व पूँजी व्यवस्था में अपनी उचित  स्थान बनाने की ताकि अन्य देशों के लोग भारती सीखकर गर्वान्वित हों और भारतीयों की सेवा में रत हों जैसाकि आज भारतीय अन्य लोगों के लिये कर रहे हैं.

नीरज कुमार झा
(मध्यप्रदेश हिन्दी ग्रन्थ अकादमी द्वारा प्रकाशित पत्रिका रचना के  मईअगस्त २००६ अंक  में प्रकाशित मेरे आलेख का अंश

बुधवार, 3 नवंबर 2010

भारती का भविष्य (भाग २)

उदारवादी वैश्वीकरण के इस दौर में इस वैश्विक संस्कृति का निरंतर विस्तार हो रहा है. वैश्वीकरण के आर्थिक प्रभावों को लेकर मतभेद हो सकता है लेकिन विभिन्न संस्कृतियों पर इसके विघटनात्मक तथा विलयनकारी  प्रभावों को नकारना असम्भव है. भारत की संस्कृति पर पाश्चात्य संस्कृति के  प्रभावों के नकारात्मक तथा सकारात्मक दोनों ही पहलू हैं लेकिन जो चिंता का कारण है वह भारत की धूमिल हो रही सांस्कृतिक अस्मिता है. भारत का आभिजात्य वर्ग विदेशी संस्कृति को तेजी से अपना रहा है तथा उनके सांस्कृतिक  आदर्शों में पाश्चात्य सांस्कृतिक मूल्य शुमार हो रहे हैं. प्रवृत्ति भारतीयता में संशोधन या सुधार की नहीं है बल्कि पश्चिमी मूल्यों का अंधानुकरण है. भारत में  पुनर्जागरण काल में भी पश्चिमी मूल्यों से प्रेरणा ली गयी थी लेकिन भारतीय मूल्यों को नकार कर नहीं. यहाँ जो विषय विचारणीय है वह  संस्कृति से जुड़ा  सबसे बड़ा और पहला मुद्दा है. यह मुद्दा भाषा का है. भाषा किसी भी सभ्यता या समाज की संस्कृति की  वाहिका हो्ती है. आज इस वैश्वीकराण के दौर में विश्व की अन्य भाषाओं के साथ भारती का भी भविष्य शोचनीय है. इस एकीकृत विश्व की भाषा अँगरेजी है. यह अंतरराष्टीय वाणिज्य की भाषा है, विश्व पूँजी की भाषा है. यह विश्व को नियंत्रित करने वाली राजनीति की भाषा है. उदारवादी  वैश्वीकरण के इस दौर  में अँगरेज़ी भाषाई एवं सांस्कृतिक ब्रह्मांड  का अंधगह्वर (ब्लैक होल) बन चुका है जिसके विनाशक आकर्षण का प्रभाव विश्व की तमाम भाषाओं एवं संस्कृतियों पर स्पष्ट अनुभव किया जा सकता  है. इसका प्रमाण अँगरेजी का निरंतर विस्तार एवं तेजी से विलुप्त  हो्ती विश्व की कमज़ोर और  छोटी भाषाएँ हैं. दुनियाँ में आज जहाँ सौ करोड़  से ज़्यादा लोग द्वितीयक भाषा के रूप में अँगरेज़ी का उपयोग कर रहे हैं वहीं बड़ी संख्या में भाषाएँ निरंतर विलुप्त हो रही हैं. कालांतर में विश्व की अनेक महत्वपूर्ण भाषाएँ, और संस्कृतियाँ भी, बिना किसी निशान, धरोहर या उत्तराधिकार के अँगरेज़ी के इस अंधगह्वर में विलीन हो जायेंगी. भारत की राष्ट्रभाषा हिंदी के भविष्य की ऐसी सम्भावना भी त्रासद है हालांकि भारती  जैसी बहुभाषी भाषा के लिये इस तरह का विलुप्तीकरण तो प्राय: सम्भव नहीं है लेकिन इसके पतन के लक्षण स्पष्ट हैं. वास्तव में भारती का वर्तमान भी कम चिंताजनक स्थिति में नहीं है. हिंग्लिश का आंग्ल भाषा का सर्वाधिक भाषी स्वरूप होने की दिशा में बढ़ना भारती का अँगरेज़ी में विलयन की प्रकिया का लक्षण हो सकता है. आज विश्व में संयुक्त राज्य अमेरिका तथा ब्रिटेन के बाद सबसे ज़्यदा  अँगरेजी बोलने वाली आबादी भारत में रहती है.

- नीरज कुमार झा 
(मध्यप्रदेश हिन्दी ग्रन्थ अकादमी द्वारा प्रकाशित पत्रिका रचना के  मई- अगस्त २००६ अंक  में प्रकाशित मेरे आलेख का अंश

शनिवार, 23 अक्टूबर 2010

महान

जो आज बड़े माने जाते हैं
उनसे मुझे परहेज है
महान तो दूर 
मैं उन्हें बड़ा भी नहीं मानता हूँ 
उदाहरण के लिये पर्दे की दुनियॉ वाले
मेरे लिए कोई मायने नहीं रखते
पर्दे पर दिखने वाले फसाने
मुझे नहीं लुभाते 
समाज को देखने के लिए
मेरे पास हैं बेहतर माध्यम
और मनोरंजन के लिए है
मेरा स्वयं का कल्पना संसार
और मेरे मन का पटल
दूसरे की कल्पना खरीदने की नहीं मुझे दरकार
नकल की कला में कोई कितना भी रखे महारत
खोटा सिक्का जैसे सबके लिए
वैसे ही मेरे लिए लोग नक़ल की दुनियाँ  के 
महान मानना ही हो तो मैं मानूंगा
नुक्कड़ों पर नाटक खेलने वाले को 
या दूसरे तमाशेबाजों को
जो हमारी तालियों पर 
कृतज्ञता से हैं सर झुकाते
खिलाड़ियों को फिर भी मैं मानता महान 
गेंदों, बल्लों आदि के करतब
कूद-फांद की असाधारण क्षमता
की करता मैं भी सराहना
लेकिन उनकी महानता क्षुद्र है मेरे लिए
जलती धूप और जमा देने वाली ठंड में 
काम करने वाले मजदूरों की महानता के सामने
घर-घर में काम करने वाली महिलाएँ 
सड़कों और भूमिगत नालों को साफ करने वाले कर्मी
मन से रूग्णों की सेवा करने वाली अस्पतालों की बहनें
असली सम्मान के अधिकारी हैं मेरे लिए 
मुझे नहीं शक 
स्वतंत्रता संग्राम के सेनानियों की महानता पर 
उनका त्याग और बलिदान है स्तुत्य
उनका साहस है प्रणम्य
जान को हथेली पर रख कर लड़ने वाले वीर सिपाही
उनके बड़प्पन पर हो नहीं सकता किसी को ऐतराज
लेकिन नहीं किसी तरह से महान 
मेरे लिए राजनेता और अधिकारी
उनमें भी हैं मानवता के सेवी
हो सम्मान उनका
काम करने के लिये बनकर अपवाद 
मैं भी मानता हूँ 
लेकिन एक तो  सेवा ही है उनका रोजगार
और दूसरा शोहरत, ईज्जत और सुविधाएँ जो  उन्हें मिलती हैं
उन्हें नहीं रहने देती महान
मेरी नजरों में
जान को खतरे में डालकर सच के लिए लड़ने वाले समाजसेवी व पत्रकार 
और स्वहित को छोड़कर समाजहित में सोचने वाले सुधी
निश्चित रूप से हैं महान मेरे लिए
महान लेकिन महान नहीं शुमार होने वाले और भी हैं
महान नहीं लेकिन महान शुमार होने वाले और भी कई हैं
लेकिन मैं अंत करता हूँ नमन करके
मित्रता की उस नि:स्वार्थ भावना को 
जो महान बनाती मेरे मित्रों को 
मेरी नजरों में

- नीरज कुमार झा 

गुरुवार, 21 अक्टूबर 2010

भारती का भविष्य (भाग १)


भारती से यहॉ आशय हिन्दी भाषा से है। इस भाषा को व्यापक बनाने तथा राष्ट्रीय स्तर पर इसकी स्वीकार्यता को बढ़ाने के लिये भारती नाम का प्रयोग ही उपयुक्त प्रतीत होता है। इससे स्पष्ट सन्देश जाता है कि भारती भारत की भाषा है। हिन्दी नाम से कुछ लोग भ्रमित हो जाते हैं। ऐसे लोग इस भाषा को धार्मिक मतावलम्बन या क्षेत्रीयता के संदर्भ में देखते है । भारती नाम ऐसे निराधार धारणाओं को दूर करने में सहायक हो सकता है। इस नाम से इसके व्यापकीकरण तथा इसे भारत के सम्पर्क भाषा के रूप में प्रभावी तौर से स्थापित करने में भी काफी सहायता मिल सकती है । गॉधीजी समेत अनेक नेताओं ने अपेक्षा की थी कि हिन्दी अन्य भारतीय भाषाओं की अभिव्यक्तियों को अंगीकार कर समग्र भारत में बोधगम्य होगी तथा यह भारत की राजभाषा मात्र न रहकर भारत की एकता तथा राष्ट्रीयता की भाषा हो सकेगी। भारती नाम इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिये भी सकारात्मक होगा। वैसे भी, संस्कृत, जो विश्व की महानतम तथा ऐतिहासिक भाषाओं में से एक है, के मूल की अग्रणी भाषा हिन्दी, जो भारतीय राष्ट्रवाद की आकांक्षाओं का भी प्रतीक है, के लिये प्रयुक्त संज्ञा तत्सम/देशज ही होनी चाहिए। इन तथ्यों के परिप्रेक्ष्य में इस आलेख में, जिसमें इस भाषा के वर्तमान के अधार पर इसके भविष्य को लेकर कुछेक अप्रिय सम्भानाओं पर चिंताएँ प्रगट की गयी हैं तथा उन चिंताओं के निवारण हेतु कुछेक विचार भी प्रस्तावित किये गये हैं, हिन्दी के लिये भारती शब्द का ही प्रयोग यथासम्भव किया गया है।

भाषा की स्थिति का समकालीन सन्दर्भ

विश्व पटल पर भारत की प्रभावशाली पहचान है तथा भारत का उज्ज्वल भविष्य, सम्पन्न तथा शक्तिशाली देश के रूप में, स्वप्न नहीं वरन् उपलब्धनीय सत्य प्रतीत हो रहा है। लेकिन इस सत्य का भयावह नकारात्मक पहलू भी है। इस सत्य का मूल्य सम्भवतः भारत की अस्मिता है तथा निश्चित रूप से इसकी अस्मिता की प्रतिष्ठा है। पूरे विश्व को एक समष्टि के रूप में लें तो इसकी अपनी आर्थिक व राजनीतिक संरचनाएँ हैं जो अपने निर्माणकों से काफी हद तक स्वतंत्र हैं। लेकिन इसकी संस्कृति सर्वाधिक शक्तिशाली सदस्यों की संस्कृति से ज्यादा भिन्न नहीं है। ऐसा होना स्वाभविक है। हालॉकि भारत इस संस्कृति एवं व्यवस्था का अंग है लेकिन उसमें इसकी हिस्सेदारी मामूली है। भारत इस व्यवस्था का हिस्सा बनता जा रहा है तथा वैश्विक संस्कृति पर इसके प्रभाव का भी अनुभव किया जा सकता है लेकिन वह प्रभाव गौण है। भारत इस व्यवस्था में समाहित होने का प्रयास कर रहा है लेकिन वह इसका निर्माणक नहीं है। 

विश्व व्यवस्था में भारत का समकालीन उद्भव भी भ्रामक है। इसमें काफी हद तक विदेशी पूँजी का हाथ है, खासकर व्यवसाय प्रक्रिया बाह्यसाधन (बी.पी.ओ.) का जिसकी वजह से भारत विश्व पूँजीव्यवस्था का फ्श्च-कार्यालय बनने का स्वप्न देख रहा है। वास्तव में भारत भूमि विश्व पूँजी व्यवस्था की कार्य-स्थली बन रही है जिसमें भारतीय अभ्यर्थी, श्रमिक, क्षुद्रसेवी, लिपिक तथा आश्रित उपोद्यमियों की भूमिका निभाने जा रहे हैं। भारत की अति दरिद्रता के परिप्रेक्ष्य में इस तरह की उन्नति भी तोष का विषय हो सकता है लेकिन मान का नहीं । 

- नीरज कुमार झा 

(मध्यप्रदेश हिन्दी ग्रन्थ अकादमी द्वारा प्रकाशित पत्रिका रचना के मई- अगस्त २००६ अंक में प्रकाशित मेरे आलेख का अंश)

रविवार, 17 अक्टूबर 2010

चिट्ठाकारी : परिवर्तन का महती मंच

  • ब्लॉगिंग या चिट्ठाकारी सूचना प्रौद्योगिकी द्वारा प्रदत्त ऐसा  मंच है जो देश और दुनियाँ को बदलने की अभूतपूर्व क्षमता रखता है. यह बिलकुल सहज, सुगम और सबसे बड़ी बात लोकतान्त्रिक मंच है. यहाँ लेखक ही प्रकाशक है और तत्क्षण अन्य लोगों को अपनी सृजनात्मकता से अवगत करा सकता है. समानता पर आधारित संवाद का यह मंच समस्त मानवता को एक साथ उपलब्ध है. यह भातृत्व का तथा बिना किसी मध्यस्थ या मठाधीश के प्रत्यक्ष कथन और प्रदर्शन का माध्यम है. दूसरे शब्दों में, यह संप्रभु अभिव्यक्तियों का मंच है. यह अभिव्यक्ति के अधिकार की पराकाष्ठा है.
  • अभी इस माध्यम को उस गंभीरता से नहीं लिया जा रहा है जिसका यह हकदार है. पहला कारण तो इसका नयापन है. दूसरा, यह जमे-जमाये किलादारों के वर्चस्व को चुनौती देता है और इसलिए वे इसे नकारने की कोशिश कर रहे हैं. वह समय दूर नहीं कि इन समस्त माध्यमों का एकीकरण होगा जिसमें अभिव्यक्ति की इस विधा की प्रधानता तय है. 
  • यह मंच हमें वह हथियार भी देता है जिससे हम उन  लोकविरोधी ताक़तों का प्रतिकार कर सकते हैं जो जनमत निर्माण के अभिकरणों पर धन और शक्ति के द्वारा काबिज हैं. मेरा विश्वास है कि यह मंच  क्षुद्र लोगों के महिमामंडन को भी रोकेगा और मानवता  की गरिमा को बहाल कर सामान्य जन को सशक्त बनाएगा. मेरी यह अपेक्षा है कि तमाम शिक्षित और सुधी जन इस मंच पर अपनी उपस्थिति दर्ज करें. 
  • यह मंच हमें सर्वव्यापक अभिव्यक्ति का मंच देता है. यह हमें अवसर  देता है जिसके लिये आज तक की  तमाम पीढ़ियों के लोग तरसते रहे. अब हम इस मंच का उपयोग करें और भरपूर करें, मगर सावधानी से करें. यह सुविधा हमारे दायित्व का भी उसी अनुपात में विस्तार करती है. अभिव्यक्ति के उचित अधिकारी बनने के लिये हमें गाम्भीर्य, सभ्यता और सबसे ऊपर ज्ञान से युक्त होना होगा. 
  • मैं इस बात को स्वीकार करूंगा कि मैंने  लोगों के चिट्ठों  पर ऐसी पंक्तियाँ पढ़ी जिनसे मेरे सोचने की पूरी धारा ही बदल गयी. यह ज्ञानार्जन और संवेदना के परिष्कार का अद्भुद साधन है. ज्ञान और संवेदना अन्योन्याश्रित हैं और ज्ञान की कमी ही हमें असंवेदनशील बनाती है और संवेदनशीलता ही हमें ज्ञान की तरफ़ प्रेरित करती है. हम सब एक-दूसरे के परिष्कार के लिये और बेहतर ढंग से प्रयत्नशील हों, इसी भावना के साथ सादर. 
- नीरज कुमार झा 

रविवार, 10 अक्टूबर 2010

क्यों नहीं ....



कर्ज है हमारे  ऊपर
पुरानी पीढ़ियों का। 
अधिकतर पीढ़ियों ने
दी है बेहतर दुनियाँ
आने वाली पीढ़ियों को। 
गौर करें हम भी
अपनी विरासतों पर। 
वैसे यह बात नहीं है
सिर्फ़ नैतिकता की;
है यह बात
स्वार्थ की भी। 
अधिकतर लोग जोड़ते  हैं
ज़मीन और ज़ायदाद
औलादों के लिये।  
वे नहीं सोचते कि
आखिर वे रहेंगे कहाँ। 
समाज में ही तो !
क्यों नहीं वे कोशिश करते
उसी शिद्दत से
छोड़ने को एक बेहतर समाज
अपने बच्चों के लिये?

- नीरज कुमार झा

शनिवार, 9 अक्टूबर 2010

बिहार में चुनाव

पांच साल पहले बिहार को  डेढ़ दशकों के अंधकार युग से छुटकारा मिला था. अब पुनः बिहार के समक्ष परीक्षा की घड़ी आ गयी है.  इन पांच वर्षों में बिहार की छवि सुधरी है और बिहार की स्थिति में  सुधार भी आया है लेकिन साथ ही यह समझना जरूरी है कि इस अवधि में भी पुरानी व्यवस्था ही कार्यशील रही है. इस दौर में बिहार पतन के गर्त्त से बाहर निकला लेकिन यह परिवर्तन  किसी नई सोच का परिणाम नहीं है. यह पुरानी व्यवस्था को ही ठीक से चलाने का एक अच्छा प्रयास था. बिहार की आवश्यकता नवीन सोच को लाने की है. नयी व्यवस्था की आवश्यकता को समझने  के लिये हमें विश्व में हो रहे परिवर्तनों को समझना होगा. इस वैश्वीकरण के दौर में  समाज को सरकारी सहायता से चलने के बजाय अपने पैरों पर चलना सीखना जरूरी है. समाज रूढ़ियों, दकियानूसी और व्यवस्था की जंजीरों से अनधीन हो प्रत्येक व्यक्ति को अपना रास्ता ख़ुद तय करने दे और उसे उन बुलंदियों को हासिल करने दे जिसके वह काबिल है. शासन की भूमिका मात्र समाज के सहायक की होनी चाहिए. जनतांत्रिक व्यवस्था में यही विकास का मार्ग हो सकता है.  

इस चुनाव में बिहार के शिक्षित और सुधी नागरिकों के लिये निर्णय लेना आसान नहीं होगा. पिछले चुनाव में उनका ध्येय साफ़ था - पंद्रह साल के जंगल राज का सफाया. अब चुनौती  दुहरी है. पहली तो यह कि जंगल राज की वापसी रोकनी है. दूसरी चुनौती है शासन की गुणवत्ता में सुधार. अब लोगों को हर चुनाव क्षेत्र में उम्मीदवारों की योग्यता और उनकी पृष्ठभूमि को ध्यान  में रखना होगा. हर व्यक्ति को इस बात के लिये सजग होना होगा कि राजनीति के अति दूषित क्षेत्र में  उपलब्ध उम्मीदवारों में जो सबसे कम बुरा हो उसे अपना समर्थन दें बिना इस बात को ध्यान दिए  कि वह जीत सकता है  या नहीं. पहला मानदंड है कि ग़लत दल को समर्थन नहीं देना है  और दूसरा कि सही दल के गलत उम्मीदवार को भी मत नहीं देना है. हमारा मत भले ही उम्मीवार की जीत में न बदले लेकिन हमारा मत हमारी हार में तो किसी भी स्थिति में नहीं बदलनी चाहिए. बिहार के उदारवादी नागरिकों को, जो  जात-जमात तथा अन्य संकीर्ण सोच और स्वार्थ से हटकर सोच सकते हैं, इस बार मतदान करने से न चूकना चाहिए और न ही चुनावी प्रक्रिया से उदासीन रहना चाहिए. उन्हें इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि  असामाजिक तत्व तथा संकीर्ण सोच के लोग अपनी कुत्सित मानसिकता के साथ  जनतांत्रिक प्रक्रिया में ज्यादा सक्रिय हैं. 

सोमवार, 4 अक्टूबर 2010

सेकुलरवाद का संकट

नीरज कुमार झा 

धर्म धृ धातु से बना है जिसका अर्थ होता है धारण करना और रिलिजन लैटिन रेलिगेअर से उत्पन्न शब्द है जिसका अर्थ है चीजों को इकट्‌ठा करना या एक ही जमीन पर से बार-बार गुजरना। सानान्य धारणा के विपरीत धर्म तथा रिलिजन का अभिप्राय एक ही है -  जमीन से जुड़ी सामाजिक व्यवस्था को कायम रखना लेकिन भारत में जहॉ बहुदेववाद, अनेक उपासना पद्धति तथा भिन्न आध्यात्मिक दर्शन की परम्परा रही है वहीं पश्चिम में एक ईश्वर, एक पुस्तक तथा एक सर्वोच्च धर्माधिकारी रिलिजन को ठोस स्वरूप प्रदान करते  थे। इसका कारण भी जमीन से जुड़ा  है। यूरोप में जमीन पर कृषकों के स्थान पर सामंतों तथा पादरियों का स्वामित्व था और सामंतवाद की व्यवस्था पदसोपानात्मक थी, अर्थात्  छोटे सामंत के ऊपर बड़ा   सामंत और उससे ऊपर उससे बड़ा सामंत और सबसे ऊपर राजा और राजा से ऊपर पोप। जमीन पर काम करने वालों को सर्फ कहा जाता था जो जमीन के हिस्से माने जाते थे अर्थात जमीन से जुड़े  जन जो बंधुआ मजदूरों की तरह थे। ये सर्फ यूरोपीय आबादी में बहुसंख्यक थे। जैसा कि मार्क्स ने कहा है कि धर्म सर्वसामान्य का अफीम है तो यूरोप में जिस तरह का शोषण था उसको देखते हुए इस अफीम की वहाँ  ज़्यादा जरूरत थी जिसके परिणामस्वरूप वहॉ समरूप केंद्रीकृत धार्मिक सत्ता बलवती रही । भारत में इसके विपरीत किसानों की स्वायत्त जीवन शैली, जमीन पर उनका स्वामित्व तथा उनकी बड़ी संख्या किसी एक ईश्वर, एक पुस्तक तथा एक परम धर्माधिकारी की व्यवस्था को पनपने ही नहीं दिया। इसकी वजह से ही भारत में राज्य-धर्म की अवधारणा उत्पन्न भी नहीं हो पायी।

धर्म तथा रिलिजन का यह पक्ष डा. हिमांशु राय ने अपनी पुस्तक सेक्युलरिज्म एंड इट्‌स कोलोनियल लिगेसी में रखा है। आप दिल्ली विश्वविद्यालय में रीडर हैं और इस तरह की कई मौलिक पुस्तकों का लेखन आपने किया है। यह पुस्तक भी धर्म, रिलिजन, राजनीति तथा उनसे जुड़ी  प्रक्रियाओं की जहाँ  एक ओर आधारभूत समझ देती है वहीं दूसरी तरफ इनसे जुड़े  अनछुए पहलुओं को उजागर करती है। उन्होंने बखूबी मार्क्सवादी उपागम का प्रयोग करते हुए यह सिद्ध किया है कि साम्यवादी व्यवस्थाएँ भले  ही असंगत थीं लेकिन अध्ययन की पद्धति के रूप में मार्क्सवाद की उपादेयता बनी हुई है। हिन्दी में इस तरह के पुस्तकों का प्रकाशन कम ही हो पाता है और इस तरह की पुस्तकों  के तर्कों  को कम-से-कम समीक्षा के माध्यम से हिन्दी पाठकों के समक्ष लाना आवश्यक है। इस पुस्तक में यह रेखांकित किया गया है कि भारतीय सभ्यता में न तो राज्यधर्म की और न ही बहुसंख्यक-अल्पसंख्यक का बोध या व्यवहार जैसी चीज थी। यह इस तरह की धारणा अंग्रेजों ने मुस्लिम आभिजात्यवर्ग के साथ मिलकर इजाद किया जिसे बाद में भारतीय उदारवादियों ने भी स्वीकारा और वामपंथियों ने समर्थन दिया। सेक्युलरिज्म की भारतीय समझ आज भी समस्यामूलक बनी हुई है।

आजकल हमारे जनतंत्र में यह मान्यता सर्वोपरि है कि विकास तथा सामाजिक न्याय की स्थापना जातीय तथा सम्प्रदायिक समूहों को आधार बनाकर किया जा सकता है। इस तरह की नीतियों का समर्थन तथाकथित प्रगतिशील वामपंथी भी करते हैं। वास्तव में यह ऐतिहासिक विकास की प्रक्रिया को उलटना है जो शक्तिसंघर्ष में लिप्त राजनैतिकों का चलाया कुचक्र है। उदारवाद जातीय (एथनिक) या सम्प्रदायिक अस्मिता के स्थान पर व्यष्टि आधारित समाज का निर्माण करता है। यह सभी सभ्यताओं में समान उत्पादन प्रणाली के आधार पर समरूप संस्कृति का सृजन करता है। पूँजीवादी  व्यवस्था के अंतर्गत मजदूर वर्ग भी पुरातन अस्मिता आधारित नीतियों के स्थान पर सेकुलर आर्थिक हितों को तवज्जों देता है। यह भी भूला दिया जाता है कि समान सार्वजनिक कानूनों के अंतर्गत ही अल्पसंख्यकों की सुरक्षा है क्योंकि समान कानून पहले बहुसंख्यक पर अंकुश रखता है। अगर जाति और पंथ के आधार पर कानून बनाएँ जाएँ  तो यह मध्ययुगीन विभाजित समाज से आज तक की सामाजिक प्रगति को नकारना होगा। आधुनिक समाज का आधार समुदाय के स्थान पर नागरिकता पर आधारित सार्वजनिक कानून हैं।


अस्मिता की राजनीति को बहुधा पूँजीवाद का प्रतिरोध के रूप  में देखा जाता है। वास्तव में इस तरह का विरोध पूँजीवाद की  विकास यात्रा की अपूर्णता के कारण है। पूँजीवाद की पराकाष्ठा सर्वजनीन या वैश्विक समरूप संस्कृति की स्थापना है जिसके अंतर्गत इस तरह के पुरातनपंथी अस्मिताओं का विलोप हो जाएगा। खासकर पंथ के आधार पर पूँजीवाद के विरोध  के पीछे समुदाय विशेष के आभिजात्य वर्ग के पुरुषों के द्वारा अपने विशेषाधिकारों को संरक्षित करने की मंशा होती है। सबसे बड़ी त्रासदी यह है कि प्रगतिशीलता के आवरण में अल्पसंख्यक प्रतिक्रियावाद को भारतीय वामपंथी समर्थन दे रहे हैं। वास्तव में जैसा डा. राय स्पष्ट करते हैं कि भारतीय वामपंथ की राजनीति उनके दर्शन को निर्धारित करती है न कि उनका दर्शन उनकी राजनीति को। इसी विडम्बना ने वामपंथ को भारत में मात्र एक दबाब समूह के रूप में खड़ा कर दिया है। 

यह पुस्तक समाजशास्त्र के शिक्षकों तथा छात्रों के लिए बहुत ही उपयोगी हैं। हालांकि यह पुस्तक लम्बे पैराग्राफ की वजह से कई जगह बोझिल हो गयी हैं । तर्कों को साररूप में अध्यायों को अंत में दिए जाने पर यह पुस्तक छात्रों के लिए और भी उपयोगी हो सकती थी। 

सेक्युलरिज्म एंड इट्‌स कोलोनियल लिगेसी
हिमांशु राय
नई दिल्ली, मानक प्रकाशन, २००९, रू. ४५०/-

(बी पी एन समग्र, रविवार, १५ नवम्बर २००९, पृ. २ में इसी शीर्षक के साथ प्रकाशित)