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शुक्रवार, 4 अक्तूबर 2024

सुनना

लोग बोलना चाहते हैं। इससे इनके अस्तित्व की पुष्टि होती है। बोलने से उन्हे अपने व्यक्तित्व और कृतित्व की मान्यता का बोध होता है। वे अपनी पीड़ा अथवा कुंठा से राहत पाते हैं। लोग अपनी खुशी की बातें साझा कर अपनी खुशी को विस्तार देते हैं। कुछ लोग बोलकर दूसरे को दुखी कर अथवा उनपर अपनी श्रेष्ठता स्थापित कर अपने अहम का पोषण करते हैं।
 
सुनना किसी भी स्थिति में बोलने वाले की सहायता करना है। दंभी लोगों को सुनना अत्यंत कष्टप्रद होता है। मुझे यहाँ साधु और बिच्छू की कहानी याद आती है। हालाँकि सिर्फ किसी व्यक्ति को सुनना, बनायी बातों को नहीं, अधिकतर सहज नहीं होता है। अतएव सुनना सेवा है।
 
नीरज कुमार झा

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