नीरज कुमार झा
मंगलवार, 1 अक्टूबर 2024
कल्याण सूत्र
राष्ट्रों की सुख-समृद्धि का यत्न वास्तव में एक निरंतर चलाने वाला युद्ध है। सुख-समृद्धि की दशा में यथास्थिति का विकल्प नहीं होता; विकास के लिए सक्रिय रहना होता है अथवा ह्रास की पीड़ा में तड़पना पड़ता है। अनेक बुद्धिवृत्तिक मस्तिष्क के प्रयोग में प्रमाद के कारण राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था को ही सकल मान लेते हैं। वास्तव में विकास असंपृक्त द्वीपीय प्रयास नहीं है; यह अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिता में बढ़त लेने हेतु सघन उद्यम की निरन्तरता है। इसमें प्रतियोगियों की क्षमताओं और निर्बलताओं को समझने का नैदानिक (क्लिनिकल) तरीका रखना पड़ता है और उसको दृष्टिगत करते हुए अपनी जयी रणनीति रचनी पड़ती है। दूसरी तरफ, अपनी क्षमताओं की परख और वृद्धि के लिए प्रयास वैसे ही होना चाहिए जैसा कि युद्ध के लिए होता है। यह युद्ध ही है और अपरिहार्य है। यहाँ तटस्थता नाम की नीति पराजय की स्वीकार्यता है। विकल्प मात्र यही हैं; जीतो और दुनिया पर राज करो अथवा हारो और दुनिया की चाकरी करो। इस युद्ध में जय उन देशों की होती है जिसके नागरिक शिक्षित, सजग, सक्रिय और निष्ठावान होते हैं, और प्रत्येक घटक उद्देश्यपरक, कुशल, और सक्षम। उक्त विषय सभी के लिए और विशेष कर बुद्धिवृत्तिकों के लिए उनके समस्त सरोकारों में सर्वोपरि होना चाहिए लेकिन उनमें से अपवादों को छोड़कर सभी शुतुरमुर्ग बने हुए हैं।
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