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मंगलवार, 3 दिसंबर 2024

दर्शन नहीं रहे रहस्यों की भूल भुलैया

दर्शन नहीं हो रहस्यों की भूल भुलैया 
न हो महानता का मंत्र 
न ही हो यह पारलौकिकता का यंत्र 
और न ही उद्धार का महासूत्र 

हो यह जीवन की समझ 
हो यह कष्टों से त्राण का उपक्रम 
बने यह अभय का विधान 
दे यह स्थिरता और निश्चितता का तंत्र 
  
ध्यान में चराचर की  मर्यादा रहे 
ध्येय प्राणिमात्र की गरिमा का प्रतिष्ठापन हो 
संवेदना इसकी श्वास हो 
प्रेम बने  इसका स्पंदन  

दर्शन को जमीन से जोड़ना होगा 
जीवन की पीड़ाओं, आशाओं, आकांक्षाओं को इसे सुनना होगा 
दार्शनिकों को अंतर की उलझनों से 
बाहर की बनावटों से निकलना होगा 

दर्शन नहीं हो सकता यान के वातायन से आपदाग्रस्तों का निरीक्षण 
न ही हो सकता सितारा सरायों में ठहर कर लोकाचार का पर्यवेक्षण 
इसे घुटन को महसूसना होगा 
जीवन के संघर्षों का भागीदार इसे बनना पड़ेगा 

यह खिलखिलाते फूलों को सहेजे  
सराहना करे झुलसे चेहरों पर लोटती हँसी की भी 
करे सबको स्वच्छता और स्वास्थ्य के प्रति सजग 
सुनिश्चित करे सर्वसुलभ सुगंध की वाटिकाएँ  व सौन्दर्य के विहार 
  
मंत्र एक पुराना है 
इसे जीवन में लाना होगा 
सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित् दुःखभाग् भवेत्

नीरज कुमार झा



सोमवार, 2 दिसंबर 2024

दर्शन की परख

मैं प्रस्तुत बीजलेख में दर्शन को इस तरह परिभाषित करता हूँ : दर्शन होने के अर्थ और उद्देश्य को नियत करने हेतु व्यवस्थित विचार है।

दर्शन का प्रभाव सकारात्मकअथवा नकारात्मक हो सकता है, या इसका कोई प्रभाव नहीं हो सकता है। यह बीजलेख निष्प्रभावी दर्शन को लेकर नहीं है।

दर्शन की प्रकृति जानने हेतु परीक्षण की यह युक्ति अपनायी जा सकती है: यह देखा जाए कि इसकी उत्पति भयजनित है अथवा संभावनालक्षित। दूसरा, यह मानवों को साधन मानता है या साध्य। तीसरा, यह लक्ष्यानुरूप मानवजीवन के संगठन की योजना निरूपित करता है या मानवजीवन को आधारित कर लक्ष्य निर्धारित करता है।

विश्व इतिहास को दृष्टिगत करने पर प्रभावोत्पादकता को लेकर इस परीक्षण की उपादेयता स्पष्ट हो सकती है।

नीरज कुमार झा

रविवार, 1 दिसंबर 2024

दर्शन और समाज

मेरा यह विश्वास समय के साथ दृढ़ होता जा रहा है कि किसी भी सभ्यता अथवा राष्ट्र की स्थिति, उत्कर्ष, अथवा अपकर्ष का प्रधान निर्धारक समुदाय में क्रियाशील विचारधारा होती है। हर समुदाय की एक प्रधान विचारधारा होती है जिसमें परंपरा, आंदोलन अथवा आरोपण का योग होता है।

किसी जनपद की भौतिक परिस्थितियों का प्रभाव वहाँ की विचारधारा पर हो सकता है लेकिन ये विचारधारा के निर्धारक नहीं होते हैं। ऐसे मानव होते हैं जिनकी बौद्धिक क्षमता और ऊर्जा उनके द्वारा लक्षित समुदाय की नियति बदल देती है और जिनका प्रभाव पूरी मानवता अथवा इसके बड़े हिस्से पर पड़ता है।

विचारधारा का प्रधान निर्धारक वास्तव में दर्शन है। इस संदर्भ में दर्शन के वैश्विक इतिहास के अध्ययन की आवश्यकता है, विशेषकर उनसे उत्पन्न प्रणालियों की और उनके प्रभावों और दुष्प्रभावों की।

प्रत्येक समाज को उत्कर्ष हेतु और अपकर्ष से रक्षार्थ दार्शनिकों की आवश्यकता होती है। आज कृत्रिम बुद्धि के दौर में सक्षम प्राकृतिक बुद्धि के पोषण की आवश्यकता और बढ़ गयी है।

दर्शन और दार्शनिकों का पोषण अपने-आप में पर्याप्त नहीं है। समाज को निःशंक दार्शनिकों से कठिन प्रश्न करने  चाहिए। यह दार्शनिकों और समाज के हित में है कि लोग अपने अनुभवों के आधार पर दार्शनिकता का गहन परीक्षण करें। उनसे मांग करें कि वे ऐसी बातें भी करें जो व्यावहारिक और बोधगम्य हों ।

नीरज कुमार झा

शनिवार, 30 नवंबर 2024

जनतांत्रिक सभ्यता

​भारतीय लोकतंत्र की जड़ें इसके सभ्यतागत मूल्यों और लोकाचरण में है। इस सभ्यता में वैयक्तिक अस्मिता, वैचारिक व सांस्कृतिक विविधता, और ऐहिकता की मर्यादा की मान्यता सदैव बनी रही है। भारत सभ्यता राष्ट्र-राज्य  ही नहीं, सभ्यता जनतंत्र भी है।

वैश्विक स्तर पर जनतंत्र का उदय और प्रसार, जिसका भारत भी हिस्सा है, का संबंध हालाँकि आधुनिकता के विकास से है, जिसकी उत्पति पाश्चात्य सभ्यता में हुई। लेकिन, जनतंत्र यूरोप में वहाँ की सभ्यता के मूल्यों और लोकाचरण के प्रतिवाद के रूप में विजयी हुआ था और यूरोपीय परंपरा का वाद उस कारण से सीमित हो गया। ऊपर से, यह दीर्घकालिक, या कहें तो, युगीन हिंसात्मक संघर्षों के बाद ही संभव हुआ।

आज भी जब विश्व में जनतंत्र की व्याप्ति सीमित ही है, भारत में जनतंत्र की स्वीकार्यता लगभग स्वाभाविक रही। इस संदर्भ में इस बीजलेख का उद्देश्य यह रेखांकित करना है कि जनतंत्र किसी भी कालखंड की स्थिति नहीं, बल्कि उसकी उपलब्धि है। जनतंत्र हर पीढ़ी से सचेतन प्रयासों की मांग करता है। हमें अपनी इस सभ्यता के प्रसाद को निरंतर परिष्कृत करना है। दूसरा जुड़ा अहम लक्ष्य विश्व और विश्व व्यवस्था को जनतांत्रिक बनाना है। सर्वजन को जनतंत्र की गरिमा से युक्त करना भारत का ही दायित्व हो सकता है।

नीरज कुमार झा

गुरुवार, 28 नवंबर 2024

'Secular' State

The statehood of Western origin, an outcome of modernism, is a secular entity. Being secular here is not an attribute but sine qua non of a State. If someone adds the adjective to state, it is superfluous. In the Indic tradition, the kings have always been sovereign but without being tyrannical as they were subject to Rajdharma, the duties befitting a king. In this sense, it is unnecessary to refer to it as such; we don't say a winged bird. 

The simple fact should have been known.

Niraj Kumar Jha

रविवार, 24 नवंबर 2024

Intellectualism

Intellectualism involves exercising the intellect to think and discuss issues based on reason rather than emotion. I add that even popular or prevalent notions should not weigh on it. 

I treat intellectualism as a social ethos here; a general spirit imbuing public discourses and activities. In addition, it must be oriented to realise and discover the reality's connectedness; i.e. to a systemic vision. 

Intellectualism is a critical factor that determines the goodness of the social state and its betterment. A nation's ability to hold its fair position and negotiate with the world on favourable terms primarily depends on its intellectual strength. 

The quality and effectiveness of intellectualism in a community require an elaborate and intricate mechanism. Maintaining and updating this critical subsystem of the political system is a conscious intellectual exercise with mindful and ample investments.  Imitated or imported intellectual schemas may lead to a surge but not sustain any programme. Only rooted intellectualism serves its purpose. 

The very consciousness of the same is a critical necessity.

Niraj Kumar Jha  

शनिवार, 23 नवंबर 2024

Freedom or Dharma

Freedom is not about the absence of restrictions. This is well-understood. The accepted view is that freedom is the availability of conditions that enable one to attain one's best.

This definition, though, comes from liberal philosophizing but betrays its collectivist underpinnings. Why would some provide those conditions to others and how? The answer to this question raises many concerns, which emerge from universal practices.

The best way to achieve those conditions would be a cooperative affair, but the law of oligarchy is unavoidable there, too. And, everybody doing everything would be too taxing for everyone.

In fact, freedom is an ecosystem of morality. It is about the voluntary ownership of responsibilities. Discoursing and doing good is both a means and end of freedom. But it is not freedom as it is understood and pursued. As it functions, it only begets either aloofness or loneliness.
It is about claims made on a mechanism ultimately depending upon the same human beings who hinder each other's pursuits of their best.

Dharma is the answer: you are the One who owns and owes. You are the being, and you are the becoming.

Niraj Kumar Jha

बुधवार, 20 नवंबर 2024

वस्तुनिष्ठता की चुनौती

किसी भी घटित हो रही लोक परिघटना का भी अध्ययन करने से पता चलता है कि उसके होने की परते हैं और और प्रत्येक परत के एकाधिक आयाम हैं। यदि अध्येता विचारधारा चालित नहीं है अथवा उसके पास पूर्व निर्धारित निष्कर्ष नहीं है तो परिघटना को लेकर कोई निर्णयात्मक घोषणा करना लगभग असंभव है। यह तब है जब अध्येता किसी घटना का प्रत्यक्षदर्शी होता है। ऐतिहासिक परिघटनाओं को लेकर अध्ययन की वस्तुनिष्ठता की चुनौती की कल्पना की जा सकती है।
 
इस फांस का काट सामाजिक समस्याओं और चुनौतियों का संवेदनात्मक चिह्नांकन और उसके निराकरण की मानवीय योजना है। इतिहास विषय को इस संदर्भ में दो भागों में विभाजित किया जा सकता है। प्रथम, प्रकार्यात्मक इतिहास और द्वितीय, कौतुक इतिहास। पहला इतिहास वह है जो समकालीन समाज के लिए उपयोगी है और दूसरा जो मात्र कौतूहल शांति के लिए उपयोगी है। पहला इतिहास वर्तमान से विगत की ओर जाएगा और दूसरा अपने समय में ही देखा जाएगा।
 
नीरज कुमार झा

रविवार, 17 नवंबर 2024

ज्ञान

ज्ञान की पारिभाषिक प्रकृति पारमार्थिक है। यह अहं की पुष्टि का माध्यम अथवा स्वार्थ सिद्धि का आवरण नहीं हो सकता है।
 
यह भी सत्य है कि परमार्थ स्वार्थ से अभिन्न है। सर्वहित में ही स्वहित की सर्वोत्तम उपलब्धि सम्भव है।

व्यावहारिकता मध्यममार्ग है। सबके भले के साथ अपनी भलाई का उपक्रम उचित है। इसकी सीमा है किसी को हानि पहुँचाए लाभ हेतु प्रयास। इससे निम्न कर्म समाज के विरूद्ध है और किसी के हित में नहीं है।

नीरज कुमार झा

बुधवार, 13 नवंबर 2024

The Myth of Naive Commoners

A commoner is an abstraction for the top-notch public intellectuals that hardly account for a real commoner. The prime reason for my observation is that a general feeling among professional intellectuals cutting through diverse ideological persuasions is that they feel that commoners' political and social perspectives can be manipulated. This is true to a certain extent but to regard commoners as they do have not a mind or understanding of their own is a gross misconception. Commoners effectively process all ideas thrown at them and have their worldviews quite independent of all ideologues working to influence them.

This is not to say that the common imagination is right or wrong. It may also be grossly mistaken, but for historical and sociological reasons, which one cannot help with. This is the first error on the part of general intellectualism as they can not discern that.

Another but bigger challenge is that people may not imagine and ideate functionally, the way that helps people towards the common good. That is due to the unavailability of a functional, not dysfunctional or malfunctioning, template for people to imagine properly. That is a failure of intellectualism, which the professional intellectuals fail to see.

Niraj Kumar Jha

सोमवार, 11 नवंबर 2024

संदर्भ व्हाट्सप्प हिस्ट्री बनाम ऐकडेमिक हिस्ट्री पर बहस : दोनों पक्षों से परे कि इतिहासकार आम लोगों से मुखातिब हैं या नहीं

यह तो एक उदाहरण भर है। निशाना सोशल मीडिया पर जन विमर्श है। यह सामान्य नागरिकों के सोचने, समझने और बातों के साझा करने पर आपत्ति है। मगर जो बात मुझे सही लगती है, वह है कि इतिहास क्या, कोई भी विषय जीवन से जूझते जन को न तो सीखाया जा सकता है और न ही उन्हें सीखने की जरूरत है। उनका विमर्श जिस रूप में है, वही उनका है और उनके काम का है। इतिहास को ही लें। विगत जो था, वही होगा, लेकिन किसी भी अतीत की परिघटना के विभिन्न आख्यान हैं जो विभिन्न इतिहासकारिता (मैं हिस्टोरीआग्रफी के लिए इतिहासलेखन के स्थान पर इतिहासकारिता शब्द का प्रयोग करता हूँ) के द्वारा सृजित की गयी होती हैं। इससे स्पष्ट है कि इतिहास अतीत की परिघटनाओं के विवरण और विश्लेषण की विभिन्नता मात्र है। दूसरे शब्दों में, इतिहास विचारधारात्मक उत्पाद है (यह थोड़ा ज्यादा हो गया है, बाद में मैं कभी संतुलित सामान्यीकरण करने का प्रयास करूंगा।)। हालाँकि इस संदर्भ में जो बात मैं कहना चाहता हूँ, वह है कि वस्तुनिष्ठ इतिहास उपलब्ध है, लेकिन इतिहास की किताबों में नहीं। वहाँ इतिहास को लिखा या पढ़ा नहीं जाता है बल्कि अतीत वहाँ स्वयं मुखर है, और वहीं मौजूद है अनगढ़ लेकिन विशुद्ध इतिहास। वह स्थान है लोकाचार, लोगों का आचार-व्यवहार; उनकी प्रथाएँ, भाषा (लोकोक्तियाँ और लोकगीत), अनुष्ठान, विश्वास-अंधविश्वास, भय-अपेक्षाएँ, और प्रीतियाँ-घृणाएँ। भले ही सोशल मीडिया पर प्रचलित बातें तथ्यात्मक रूप से भ्रामक या गलत हों, लेकिन उनके पीछे की भावनाएँ बिल्कुल खरी हैं। प्रचारित बातें भावनाएँ नहीं निर्मित करती हैं बल्कि गहरी भावनाएँ उन बातों को व्यापकता देती हैं।

इस बात को ध्यान रखने पर सुधी जन का रोष कम होगा और साधारण लोगों की बुद्धि को शायद कम कोसेंगे। 
यदि मेरी बात गलत है तो वे सुधीजन मेरा सुध लेते हुए मुझे शिक्षित करेंगे। कृपया।

नीरज कुमार झा

रविवार, 10 नवंबर 2024

Education and Ethics

Many advocate that ethics should be part of education. They see it as a valuable or necessary addition to the education process. They call it ethical education and its obvious implication is that moral education is a specialised and neglected stream of education.

This is a grossly mistaken perspective. Ethics is the sine qua non of education, not an addition. It is the core of education. Even imparting basic skills should not be without inculcating related values. Everything we do should be in service to others and one must do that honestly and with empathy. People are educated to be morally capable of doing things. At the same time, the claim of a fair reward for doing the service is equally moral.

A moral society is a progressive society. A decline in any society and civilization begins with moral degeneration. 

Educational institutions are meant to uphold and infuse morality in society. Their institutionalisation and working demand the utmost care. 

Niraj Kumar Jha 


मंगलवार, 5 नवंबर 2024

Moral Order

Morality is the lifeblood of the social system. The fear of divine justice upheld this order to a good extent earlier, but that is grossly weakened now.
 
Good schooling with the best human beings available as teachers is now unavoidable if we do not want all hell to break loose.
 
Morality and the rule of law strengthen each other. Effective and fair laws are essential for morality's sustainability.
 
Besides these fundamentals, social reorientation is needed to integrate people into harmonious and pleasant community life. No person should feel alienated and being aloof should not be more pleasing than being with others. People, in general, should be conscious of this need for social remaking and think and do something in that direction.
 
Niraj Kumar Jha

शनिवार, 2 नवंबर 2024

Material Conditions and Human Agency

A widely prevalent misconception is that material realities condition human agency. This is true to some extent but in the most bland way. The cutting edge of human agencies is too often quite different and even opposite to what material conditions may dictate. Instincts and ideologies which drive human action more often than not defy the logic of the material. 

Theologies and ideologies prove the point by their continuation through the ages and spread across geographies beyond their original ones. 

The present-day world needs to cooperate unavoidably to tackle such grave issues like climate change and to run affairs of a more integrated world but it is conflicts, military and others, which overwhelm international relations. The world needs to rethink values which fashion human thinking and actions. Ideas are crucial and more effective agents of change. Let us ideate. 

Niraj Kumar Jha 

शुक्रवार, 25 अक्टूबर 2024

Civilizationalism

Nationalism has been under greater focus after the decline of neoliberalism in the world. After preventing the disappearing barriers and even borders, the nations are now busy with homeland economics and geopolitics.

What is not talked about generally is Civilizanalism. The reality is that it is a more powerful sentiment than nationalism shaping global state and affairs. After Samuel Phillips Huntington's Clash of Civilizations warned about the nature of impending conflicts, concerned people around the globe rose in denial, but none did anything to prevent such a prospect. Unseen and unrealised, civilizations are racing in the direction as foreseen.

Niraj Kumar Jha

Agencies for Peace

International conflicts affect not only the people of the belligerent countries but the whole world. International agencies have not been impartial or effective so far in preventing or resolving such conflicts. The need for fair and effective international agencies for conflict resolution is critical now as the delay would cause the eruptions of more serious crises. If the next upgrade of international order takes place after greater tragedies, it would itself be a worse tragedy than whatever is tormenting us or going to trouble us human beings. 

Niraj Kumar Jha

गुरुवार, 24 अक्टूबर 2024

दर्शन और प्रदर्शन

दर्शन को मात्र ज्ञान की विशिष्ट विधा मानना यथार्थ नहीं है। दर्शन हर व्यक्ति के जीवन का अविभाज्य आयाम है। मानव बिना जीवन दर्शन के नहीं हो सकता है। मानवीयता की आवश्यकता दर्शन को लेकर जाग्रत चेतना है।

इस संदर्भ में यह रेखांकित करने का प्रयास किया गया है कि सामान्य जन में प्रदर्शन के और उसमें निहित दर्शन को दृष्टिगत करने की क्षमता हो। प्रदर्शन के माध्यम से अनेक अमंगलकर विचार समाज के अभिकरण के चालक मूल्यों में प्रविष्ट करा दिए जाते हैं।

नीरज कुमार झा

मंगलवार, 22 अक्टूबर 2024

खरी बौद्धिकता

निष्कंटक उद्योग और उद्यम की धरा पर ही ज्ञान-विज्ञान, साहित्य, संस्कृत, और कला फलती-फूलती है। विचारधारा या विचार जो वैयक्तिक उद्यम का विरोधी है, उसे ओछा दिखाता है, वह आत्मघात का साहित्य है। 

भारतीय परंपरा द्वेष रहित सुख-समृद्धि की आकांक्षा और जीवन का पोषक रही है। पाश्चात्य जगत में आधुनिकता भयावह रक्तपात के द्वारा आयी है। भारत में सापेक्षिक आधुनिकता का सहज चलन इसकी तार्किकता की परंपरा की पुष्टि करता है।

बहुतायत में बौद्धिक फुनगी का महिमामंडन करते है। जड़, तना, शाखाओं सहित वृक्ष के वृहत्तर यथार्थ की अवहेलना और अवमानना उनकी प्रकृति में है। यही आधिपत्य की दीर्घावधि जनित दासता की प्रवृत्ति है जो उन्हें सत्य को देखने से डराती रही है।

नीरज कुमार झा

सोमवार, 21 अक्टूबर 2024

पहचान की पहचान

पहचान दूसरा बड़ा सवाल हमेशा से रहा है
सवाल यह भी है कि पहचान की पहचान क्या है
पहचान क्यों, किनके लिए, और किनसे
यह सवाल शायद ही उठा हो कभी

नीरज कुमार झा



Studying Abroad

Many scholars go abroad to research India and return home on field trips. This may have some uses, but what may be more useful for India is that Indians go abroad to study those countries. It is good that we make others know us, but more important is we know them.
 
Niraj Kumar Jha

शनिवार, 19 अक्टूबर 2024

सहारा बेसहारा

जो बेकाम है, उसकी पीड़ा बड़ी है
जो काम पर है, वह भी पीड़ित है
पानी है तो किनारा नहीं है
किनारा है तो पानी नहीं है
सहारा के लिए बनना सहारा है
यही सीखने-सीखाने की जरूरत है

नीरज कुमार झा

सत्य जीवन

सत्य अज्ञेय, बोध भी सत्य है 
निरंतर सत्य, अंतर भी सत्य है 
जीवन सत्य, सनातन है  
आत्ममय, यह चराचर है 
धर्म एकता, सौहार्द, और सहयोग है 
अधर्म अनेकता, घृणा, और वैमनस्य है 
अधर्म रूग्णता, निवारण उसका धर्म है
धर्म सत्य,  धर्म कर्म जीवन है

नीरज कुमार झा 




शुक्रवार, 18 अक्टूबर 2024

Truths

The best truths are what one experiences first-hand, but even then that may not be the same for others. Many things we do not experience, but are made to be experienced. The selection of the to-be-experienced and the intent of the presenters makes a difference. Even if one experiences something on their own, the critical factor is not the subject, but the cognitive orientation of the experiencer. Different people respond differently to the same thing.

By and large, barring some very basic things, like this is a bat and that is a ball, truths are what we favour and lies are what we disfavour.

What are objective truths then? It is mutuality. It is the sense of respectability and responsibility towards others. It is something human agency endeavours to nurture in each. A crisis looms large when such endeavours do not materialise or insufficiently materialise.

Truth is truthfulness

Niraj Kumar Jha

गुरुवार, 17 अक्टूबर 2024

Means or End

Social relations, creative engagements, and productive activities are not means to some end but end by themselves. Life is but meaning and purpose. At the same time, communities owe this responsibility. The unengaged often bring hell to others. Schools must train and motivate undergraduates for them, and municipalities must care for and facilitate them.
 
Niraj Kumar Jha

मंगलवार, 15 अक्टूबर 2024

Nationalism

Nationalism is a community's awareness of and commitment to itself. It is realised, recognised, institutionalised, and structured sovereign unity for justice and excellence by one and all.
 
Niraj Kumar Jha

शब्दों की खेती

शब्दों की खेती करते 
उगाते असंभव के पौध
देख प्रफुल्लित होते
बोधहीनता के कंटकों में उलझे लोग

नीरज कुमार झा

Industrialists

Industries form the backbone of a nation. Mind it, it is not only bone but also bonemarrow. Our industrialists are real heroes. They could outwit the colonial regime to flourish and survive the socialist spell. And, in this lofty endeavour, they helped the rise of nationalism and nation-building.
The capitalism they brought led democracy to grow and deepen its roots. In other colonies, where capitalism could not take root, democracy failed to emerge or survive.
 
Niraj Kumar Jha

शुक्रवार, 11 अक्टूबर 2024

निंदक

निंदक नियरे राखिए, आंगन कुटी छवाय,
बिन पानी, साबुन बिना, निर्मल करे सुभाय

आदर्श स्थिति यह है कि विज्ञों और सज्जनों के मध्य श्रेष्ठ सत्य के लिए सम्मानपूर्वक संवाद होता रहे, लेकिन निंदक की भी बौद्धिकता के लिए उपादेयता है। निंदा की प्रवृत्ति बौद्धिकता के अभाव और ईर्ष्या भाव से जनित होती है। निंदक विचारों में कमियाँ बताता है और तथ्यों की गलत व्याख्या करता है। प्रतिबद्ध विचारक उसको दृष्टिगत करते हुए अपने विचारों का परिष्कार करेगा और उसकी सही व्याख्या कर उसे और बोधगम्य बनाएगा।

नीरज कुमार झा

सोमवार, 7 अक्टूबर 2024

Towards Light

What one is made to believe is the fountain of all their reasonings. One can endlessly argue logically, that is being faithful to one's faculty, for what they do not reason but believe to be true. Rationality ends up serving beliefs. Therefore, ...

'तमसो मा ज्योतिर्गमय'

Concerned people always work for a clearer view. Darkness is the natural state, light is an endeavour.

Niraj Kumar Jha

रविवार, 6 अक्टूबर 2024

सम्मान

अभी मेरे एक व्याख्यान का विषय 'सम्मान' था। मैंने उसमें इसके सैद्धांतिक पक्षों के साथ फेसबुक पर बारम्बार अपनी लिखी कई बातों को रखा।
 
1. सम्मान मानवमात्र की गरिमा और समतावादी दृष्टिकोण जनित भावना और अभिवादन है।
2. प्रत्येक अन्य के प्रति सम्मान की भावना आत्मसम्मान का प्रकट रूप है।
3. आत्मसम्मान और अहंकार में अंतर है। दंभी दूसरे को नीचा दिखाना चाहता है और स्वयं को ऊँचा दिखाता है।
4. अधिकतर लोग सम्मान को लेकर सहज नहीं होते हैं। वे अन्य को अपने से नीचे अथवा ऊपर देख पाते हैं।
5. इसका कारण मानववाद की समूहवाद के विचारधारात्मक प्रतिरोध के कारण तदनुरूप अर्थव्यवस्था की असावयवी प्रकृति और जनवैचारिकी में अपर्याप्त मान्यता है।
6. सम्मान के दृष्टिकोण से शिक्षाशास्त्र की प्रकृति में संशोधन और अन्य के साथ संस्थाओं में पदस्थ सुधी जनों की संस्था के माध्यम से सक्रियता अभीष्ट है। 

नीरज कुमार झा

शनिवार, 5 अक्टूबर 2024

भाषा चातुर्य और मर्मज्ञता

भाषा चातुर्य और मर्मज्ञता दो भिन्न परिघटनाएँ हैं और आवश्यक नहीं कि कोई व्यक्ति दोनों से युक्त हो। भाषाई व्यूह से असंपृक्त रहते हुए प्रासंगिक मंगलकारी तथ्यों का बोध प्राप्त करना भी गहन शिक्षा से ही संभव है। यहाँ यह स्पष्ट करना भी आवश्यक है कि शिक्षा व्यक्ति के स्वयं का प्रयास है। जो व्यक्ति सीखने से विमुख है, उसका मार्गदर्शन कोई गुरु नहीं कर सकते।
 
नीरज कुमार झा

शुक्रवार, 4 अक्टूबर 2024

सुनना

लोग बोलना चाहते हैं। इससे इनके अस्तित्व की पुष्टि होती है। बोलने से उन्हे अपने व्यक्तित्व और कृतित्व की मान्यता का बोध होता है। वे अपनी पीड़ा अथवा कुंठा से राहत पाते हैं। लोग अपनी खुशी की बातें साझा कर अपनी खुशी को विस्तार देते हैं। कुछ लोग बोलकर दूसरे को दुखी कर अथवा उनपर अपनी श्रेष्ठता स्थापित कर अपने अहम का पोषण करते हैं।
 
सुनना किसी भी स्थिति में बोलने वाले की सहायता करना है। दंभी लोगों को सुनना अत्यंत कष्टप्रद होता है। मुझे यहाँ साधु और बिच्छू की कहानी याद आती है। हालाँकि सिर्फ किसी व्यक्ति को सुनना, बनायी बातों को नहीं, अधिकतर सहज नहीं होता है। अतएव सुनना सेवा है।
 
नीरज कुमार झा

सुनना

सुनना सेवा है।

बुधवार, 2 अक्टूबर 2024

बौद्धिक पारितंत्र

बौद्धिकता एक पारितंत्र हैं जिसके अंतर्गत ही बुद्धिमत्ता क्या है, निर्धारित होती है। विलक्षण जन विशिष्ट पारितंत्र के निर्माण के सूत्रधार होते हैं। आधुनिक युग में ऐसे पारितंत्रों के सूत्रधारों के रूप में महात्मा गांधी, जॉन लॉक, और कार्ल मार्क्स को देखा जा सकता है। महात्मा गांधी संवेदनायुक्त मानववाद, जॉन लॉक क्रियात्मक मानववाद, और कार्ल मार्क्स समूहवाद के पैरोकार हैं। आधुनिक समाजों में ये तीन पारितंत्र प्रभावी हैं। वर्तमान में तीनों का प्रभाव है, लेकिन प्रथम भविष्य है, द्वितीय वर्तमान, और तृतीय भूत। 

नीरज कुमार झा

मंगलवार, 1 अक्टूबर 2024

कल्याण सूत्र

राष्ट्रों की सुख-समृद्धि का यत्न वास्तव में एक निरंतर चलाने वाला युद्ध है। सुख-समृद्धि की दशा में यथास्थिति का विकल्प नहीं होता; विकास के लिए सक्रिय रहना होता है अथवा ह्रास की पीड़ा में तड़पना पड़ता है। अनेक बुद्धिवृत्तिक मस्तिष्क के प्रयोग में प्रमाद के कारण राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था को ही सकल मान लेते हैं। वास्तव में विकास असंपृक्त द्वीपीय प्रयास नहीं है; यह अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिता में बढ़त लेने हेतु सघन उद्यम की निरन्तरता है। इसमें प्रतियोगियों की क्षमताओं और निर्बलताओं को समझने का नैदानिक (क्लिनिकल) तरीका रखना पड़ता है और उसको दृष्टिगत करते हुए अपनी जयी रणनीति रचनी पड़ती है। दूसरी तरफ, अपनी क्षमताओं की परख और वृद्धि के लिए प्रयास वैसे ही होना चाहिए जैसा कि युद्ध के लिए होता है। यह युद्ध ही है और अपरिहार्य है। यहाँ तटस्थता नाम की नीति पराजय की स्वीकार्यता है। विकल्प मात्र यही हैं; जीतो और दुनिया पर राज करो अथवा हारो और दुनिया की चाकरी करो। इस युद्ध में जय उन देशों की होती है जिसके नागरिक शिक्षित, सजग, सक्रिय और निष्ठावान होते हैं, और प्रत्येक घटक उद्देश्यपरक, कुशल, और सक्षम। उक्त विषय सभी के लिए और विशेष कर बुद्धिवृत्तिकों के लिए उनके समस्त सरोकारों में सर्वोपरि होना चाहिए लेकिन उनमें से अपवादों को छोड़कर सभी शुतुरमुर्ग बने हुए हैं।

नीरज कुमार झा 

शनिवार, 28 सितंबर 2024

साहित्य और संपत्ति

साहित्य का ध्येय संपत्ति हो, विपत्ति नहीं। निर्धनता सांस्कृतिक उन्नयन के मार्ग में सबसे बड़ा अवरोध है। जैसे संपत्ति और संस्कृति अभिन्न हैं, वैसे ही विपत्ति और विकृति (कुरीतियाँ)।

सामान्यतः, साहित्य की सहानुभूति निर्धनों के साथ होती है। रचनाधर्मिता में संवेदना की भावना होने की संभावना अच्छी रहती है। समस्या यह है कि अनेक रचनाकार निर्धनों के प्रति सहानुभूति और निर्धनता के प्रति सहानुभूति में अंतर नहीं कर पाते।।

रूग्णता का गीत नहीं गाया जाता।

संपत्ति से साहित्य भी सम्पन्न होगा। सम्पन्न व्यक्ति ही साहित्य पढ़ अथवा इसके प्रस्तुतीकरणों को देख सकता है। अधिकतर लोगों के द्वारा साहित्य पढ़ा जाए और खरीदा जाए तभी साहित्य की उपादेयता है और साहित्यकारों की प्रसंगिता भी। यह साहित्यकारों की प्रतिष्ठा भी बढ़ाएगी और बड़ी संख्या में रचनाकारों के लिए पर्याप्त आय वाली आजीविका भी बन सकेगी।

​यह कैसी स्थिति है कि जिनपर लिखा जाता है वह पाठक नहीं है? जिस क्रांति की कोई संभावना नहीं है, उसका गीत गाया जाता है।

यह चलन जीवन और सृजन दोनों की वंचना का कारण है।

बड़ी समस्या यह है कि निदान नीरस होता है और समस्या सम्मोहक।

नीरज कुमार झा

मंगलवार, 24 सितंबर 2024

Good or Grand

We do not long for good, but for better. Better is possible only amidst the goodness of the ecosystem. In a bad social setup good cannot happen, grand does occur. Goodness is for more and more people, grandeur is for less and less.

For a normal blissful life, generally, one desires and even strives but that deludes people in most cases; what is required for that is one is socially concerned and endeavours to have a scientific worldview and so merited having some involvement in social affairs.

Many people nurse the mistaken belief that the worst provides a turning point to a miraculous advance to good. They do not have any historical sense, a community and civilization may remain quagmired for centuries.

The takeaway is simple: you cannot be cavalier with public affairs. Seriousness and scientific temper are necessary if one wishes for a good life. Society has its laws, though highly fluid; that must be understood in terms of causations and consequences. Open mind and literary pursuits help and disciplines of Sociology, History, and Political Science provide special help.

Niraj Kumar Jha

Expressiveness of Meaninglessness

Meaningless expressions receive maximum applause. Expressers do this for this reason only hardly knowing that people cherish the unavoidable unbearable meaninglessness reduced to the expressables.
 
Niraj Kumar Jha 

सच्चाई का मोल

सच्चे आदमियों को सच बोलना चाहिए। सच की कीमत बनाए रखने के लिए यह बहुत जरूरी है।

नीरज कुमार झा

रविवार, 22 सितंबर 2024

बुद्धि

प्रखर बुद्धि हेतु प्रार्थना और निरंतर प्रयास धर्म है। बुद्धि भिन्नता में एकत्व की अनुभूति का हेतु है और इसकी प्रवृत्ति परमार्थ है। धर्म ऐहिक और आध्यात्मिक दोनों ही सरोकारों का संतुलित समन्वय का दृष्टिकोण और जीवन शैली है। इस संदर्भ में यह तथ्य अत्यंत प्रासंगिक है कि बुद्धि की प्रकृति का यह भी अपरिहार्य आयाम है कि यह कुबुद्धि के व्यूहों और बुद्धिहीनता के तांडव का शमन कर सकती है। दुर्जनों के सुधार हेतु प्रयासों के साथ ऐसी संभावनाओं और घटनाओं के प्रतिकार को लेकर युक्ति और तंत्र का विकास संतुलित बुद्धि का परिचायक है। कंटक निवारण की निरापद युक्ति राजनीति का अहम दायित्व है।
 
नीरज कुमार झा

बुधवार, 18 सितंबर 2024

जिंदगी की कहानी

न बचपना, न जवानी, सीधे बुढ़ौती है
आम जिंदगी की बस यही कहानी है

नीरज कुमार झा

काश!

काश, सिद्धांतकार होता
सारी दुनिया को विचारों की पोटली में समेट कर
हवाओं पर सवार रहता
नहीं तो, कवि ही होता
रच शब्दों का चमत्कारी विन्यास
मुक्त स्वयं को कर लेता
कोई नहीं, लेकिन ऊपरवाला
ऊपर तो खाली रखता
दिल भरा, भारी तो नहीं रहता

नीरज कुमार झा 

मंगलवार, 17 सितंबर 2024

बाल सौंदर्यबोध

चित्रकथाओं और पत्र-पत्रिकाओं में,
पुस्तकों के मुखपृष्ठों पर,  
कैलंडरों, पोस्टरों, और पैकेजों पर,
खासकर पटाखों और बीड़ी के बंडलों पर,
औजार बक्सों पर,
और सबसे सुंदर,
गहरे पेंट से ट्रे पर
छपे चित्रों और दृश्यों को
मैं ध्यान से देखता था
और खो जाता उन चित्रों की दुनिया में। 
बचपन की आँखों के सौंदर्यबोध;
वैसा सहज आनंददायक
इस दुनिया में कुछ भी और नहीं है। 

नीरज कुमार झा 

The Worst Scarcity

The scarcity or absence of good workable ideas has been endemic at most times and places and is the reason for too many avoidable human miseries.

Niraj Kumar Jha

Way to Offset the Wealth-concentrative Tendency of Capitalism

Wealth concentration is a natural property of any active economic system. Capitalism is no different but offers a very effective way of offsetting the concentration of wealth. This may be community enterprises at the local level and cooperative capitalism on a larger scale. Many cooperatives are already doing very well in India. It needs to be extended to other complex entrepreneurial ventures.

Village residents can pool resources to establish a cooperative enterprise to run agro-product storage houses and provision stores in nearby cities. The irony is that MNCs and giant corporations sell cut vegetables, ground spices, and wheat flour.
A colony can run its cooperative provision store, restaurant, and health centre. Any community can reclaim many productive activities, which have gone to corporations. I remember cobbler used to measure our feet to supply customised footwear when I was a kid.
Communities can be the best and most reliable producers and suppliers of capital, commodities and services.
Niraj Kumar Jha

सोमवार, 16 सितंबर 2024

Ideologies: Avoidable and Inevitable

The fact remains that ideology is unavoidable. Organisations need one, which works as the keel joining their principles and practices.

Wise people detest ideologies as they can see the play of ideologies fostering tyrannies and curbing individual freedoms.

Ideologies can be classified as operationalising and reformative on one side and disruptive and reconstructive on the other.

The former is inevitable to the extent required for any organised effort and highly desirable if it works for piecemeal reforms.

It is the latter, which generates a general disdain among careful observers and is avoidable.

Niraj Kumar Jha

रविवार, 15 सितंबर 2024

UBI Again

UBI is again in the limelight following an ILO report. Unemployment is getting severe now. Trouble is no longer jobless growth but job-loss growth; growth that causes job losses because of automation and AI. Another related problem is that of poverty. The rich are getting richer on one side taking advantage of new technologies and the poor are becoming poorer.
UBI, i.e., the Universal Basic Income is seen as the solution to these crises; scholars in greater numbers now agree. And, there should be no doubt that it is now unavoidable. The late-starter nations would be laggards as a well-thought-out model of the same promises many advantages for a country.
There are two ways of providing UBI. The socialists prefer free or subsidised services and goodies to people, and the capitalist method is direct cash transfers.
The efficacy and effects of the latter are yet to be tested on a large scale but the former is a proven failure. It brings in only inefficiency and scarcity. The latter is the only way left but much would depend on how a county formulate and fine-tune the arrangement.
Niraj Kumar Jha

शनिवार, 14 सितंबर 2024

हिंदी का प्रचार-प्रसार

यह आवश्यकता नितांत है कि हिंदी विश्व भाषा बने। तोष का विषय है कि हिंदी अनेक देशों में समझी और बोली जाती है लेकिन प्रयास इसे अँग्रेजी से ऊपर ले जाकर विश्व की प्रथम भाषा के रूप में स्थापित करने के लिए होना चाहिए। लक्ष्य ऊँचा होना ही चाहिए क्योंकि भारत जैसी प्राचीन सभ्यता और विशाल देश के लिए लक्ष्यों की निम्नता का कोई औचित्य नहीं है।
 
इसके लिए व्यवस्थित प्रयास और निवेश की आवश्यकता है। हिंदी भाषी क्षेत्र के नागरिक समाज संगठनों, विश्वविद्यालयों और सरकारों को इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए योजना बनाकर काम करना होगा।
 
इस योजना का यह एक आवश्यक भाग होगा कि हिंदी भाषी क्षेत्र के शिक्षण संस्थानों में भारत की अन्य भाषाओं में अध्ययन, अध्यापन, और शोध किए जाने की सुविधा हो।
 
दूसरा कि राष्ट्रीय स्तर पर विश्व की सभी भाषाओं के अध्ययन और शोध हेतु संस्थानात्मक उपक्रम और अधिक संख्या में स्थापित किए जाएँ।
 
नीरज कुमार झा

मंगलवार, 10 सितंबर 2024

Speaking with Books

While reading a book, in the apparent act of doing so, do you notice that the book is also studying you and speaking to you? If not, you are not reading a book or not doing the reading at all.

If your conversation with books becomes part of your conversations with people, it justifies the pains undertaken by authors for writing the speaking books.
 
Niraj Kumar Jha

Humanism: a Neglected Chapter

It is the failure of philosophy to get stuck to existential incomprehensibility and not to realise its very nature of being so, i.e., it is incomprehensible. It is antihuman to fog human consciousness by invoking an imagined comprehensible wholesome narrative of existence. It only disorients human consciousness towards what is understandable and actionable. Humanism is still a neglected chapter in the book of humanity to its detriment.

Niraj Kumar Jha 

Deglobalization

The secular gifts of capitalism accruing during the last quarter of the twentieth century are completely discarded in the first quarter of the twenty-first century. The promise of human redemption to a fuller self is now nowhere to be seen.

What explains the reversal? It is the faculty's betrayal of agency. The entrenched interests ruling the roost internationally or aspiring ones conspired to thwart globalisation. The very pioneers of globalism backtracked seeing the rise of the others. Here, human epistemology could have enabled people to hold the gains and strive for more but it worked in the opposite direction due to its weaknesses. The likely beneficiaries were intellectually too impoverished to see the changes in circumstances in their favour. They rather only blamed these positive changes for their failures. The domestic elites were also hostile to the trend seeing its democratization potential.

Niraj Kumar Jha

सोमवार, 9 सितंबर 2024

स्वामित्व से सेवाभाव की ओर

जनतंत्र का अर्थ जनस्वामित्व है। जनतंत्र में राजा पद का विलोप हो जाता है जो स्वामी हुआ करता था। जनतंत्र में जन ही स्वामी होते हैं और नागरिक कहे जाते हैं। प्रजा से नागरिक बनने का अर्थ अपने अधिकारों और दायित्यों का ज्ञान और उनका क्रमशः उपयोग और निर्वहन है।

अधिकार और दायित्व एक समग्र के ही आयाम  हैं। प्रत्येक का अधिकार दूसरे का दायित्व है। यही नागरिक बोध प्रत्येक के लिए सहज और सफल जीवन सुनिश्चित कर सकता है।

जब जन जनतांत्रिक व्यवस्था में परिपक्व होंगे तो स्वामित्व भाव स्वयमेव तिरोहित हो जाएगा और बचेगा मात्र सेवाभाव। यह स्तिथि जनतंत्र के विकास का अगला चरण है और आज की चेतना के अनुसार जनतंत्र की यात्रा का गंतव्य भी। इस दिशा में यात्रा जन प्रज्ञता पर निर्भर करेगी।

नीरज कुमार झा

शुक्रवार, 6 सितंबर 2024

उपलब्धि

मेरी समझ से शिक्षकों की उल्लेखनीय उपलब्धि यह नहीं है कि उन्हें शिक्षार्थियों और अन्य से सम्मान मिला। उनकी उपलब्धि यह होगी कि उन्होंने अपने आचरण और वचनों से लोगों को मानवता, प्रत्येक मानव, जीवमात्र और अजीवों के प्रति भी सम्मान रखना सीखाया। सबसे ऊपर, उनका प्रधान कर्तव्य है कि जो भी उनके सम्मुख आये, उनमें वे आत्म-सम्मान की भावना का संचार कर सकें। उनके मानस में जीवन की महत्ता को उद्घाटित करें। यह विषय थोड़ा क्लिष्ट है। कई लोग अपने दंभ को आत्म-सम्मान के रूप में घोषित करते रहते हैं। दूसरी तरफ, ज्ञानियों के रूप में विख्यात भी जीवन की अवमानना को ज्ञान के रूप में संभाषित करते हैं। शिक्षक की सफलता यह है कि उन्होंने शिक्षार्थियों को अपने सर में मस्तिष्क की उपस्थिति और उसकी उपयोगिता से अवगत कराया है।

नीरज कुमार झा

सोमवार, 26 अगस्त 2024

मूर्खता नामक गुत्थी

यहाँ मूर्खता का संदर्भ सामुदायिक हितों को लेकर विचार हैं। अनेक विद्वान अधिकतर को मूर्ख समझते हैं और और कई उन्हें ही मूर्ख मानते हैं।गुत्थी यह है कि विद्वान के रूप में प्रतिष्ठित लोग भी एक-दूसरे को मूर्ख समझते हैं।

मूर्ख कौन है? कैसे पता चले?

मेरी समझ यह है कि मूर्खता नाम की कोई चीज नहीं है। यह सम्मानपूर्ण परस्पर संवाद की प्रवृत्ति का अभाव है। जिनमें यह प्रवृत्ति नहीं है, विद्वान होने के बावजूद उनकी मानसिकता दोषपूर्ण है।

नीरज कुमार झा

Safety

Security of life is why we associate as a state and fund the government. Implicit in this concern is the protection of property and liberty, as these are needed for making human life possible.

The rest of the legitimate jobs the government performs are derivatives of this raison d'etre role of the government. And, beyond whatever the government does is undue interference in the social and personal affairs.

We ask for other things and put our lives in peril because of leftist indoctrination, or brainwashing.

Niraj Kumar Jha

शनिवार, 24 अगस्त 2024

Humanism Deficit

Humanism is essential to being human but for humanity, its realisation remains a far cry. Civilizations and communities took centuries or millennia to be aware of the human essence. And there remain those who still prevail, completely oblivious of their essential selves.

The present is an intense phase of the struggle between these two starting points of existential cognizance, humanism and transcendence, including the latter's secular variants. This is the root cause of many conflicts between civilizations and nations and within them.

Niraj Kumar Jha

महानता

बहुत से लोग महान होने का भ्रम पालते हैं और उनसे भी अधिक विशिष्ट होने का। महान होने की भावना विशिष्टता की भावना का अतिरेक है।
 
यह तथ्य है कि सभी विशिष्ट हैं लेकिन यह भी तथ्य है कि यह विशिष्टता नहीं है।

लोग विशिष्ट होने के उपरांत भी अपनी विशिष्टता के प्रदर्शन के लिए प्रयासरत रहते हैं और उस विशिष्टता के लिए मान्यता चाहते हैं। दूसरे शब्दों में, जयकारा की कामना रखते हैं।

वास्तव में यह दोषपूर्ण ज्ञानमीमांसा के द्वारा आरोपित अपूर्णता का बोध है। ऐसे अपूर्ण लोग अपनी अपूर्णता के अनुपात में दूसरों के लिए संकट बनते हैं।

नीरज कुमार झा

सोमवार, 19 अगस्त 2024

Citizenry and Economic Growth

India is an economic powerhouse. The billion-plus citizenry fuels the momentum. Its further rise vis a vis other great economies is imminent. The point is to infuse more speed and quality into the process. All those genuinely concerned about their self-interest and general interest must talk about and demand ever greater ease of doing business and making the economy internationally competitive. Most of the socio-political problems which beguile and trouble us would go away without being noticed if we can raise the GDP growth rate to double digits. The activities generated by such a movement would engage most people in a very productive and creative relationship.

A respected business leader has raised concern about the unchecked population growth and obliquely spoke in terms of praising the 'emergency' years, tragically. It must be widely known that it is poverty which causes disproportionate population growth and it is not vice versa. Population rise is a matter of concern only for the reason that it pressures ecology, and for no other reasons as they are highlighted. It is a big youth population at this period, the demographic dividend, which is making India an economic powerhouse.

Niraj Kumar Jha

शनिवार, 17 अगस्त 2024

बुधवार, 14 अगस्त 2024

The State of Democracy

Technology has built up highly functional and super-efficient democratization infrastructure. Despite that global democracy is sliding, even developed Western countries are no exception.
What may be the reason for that?

Medieval forces, or forces emerging during the age of unreason and hordes, had, in fact, DNAed their barbaric reflexes into a great number of people. The DNA still determines the beliefs of a sizable portion of the global population. They are also using the same infrastructure.

A secondary reason is that Western countries have a dual approach to democratic values. They deploy the most heinous stratagems to undermine democratic possibilities elsewhere. They practice democracy within their race only. Challenging is now for them to prevent things from boomeranging.

Niraj Kumar Jha

शनिवार, 10 अगस्त 2024

Foreign Epistemologies

There is no Third World left with the collapse of the Second World but Thirdworldism survives as an epistemological category, or to say more appropriately, as an epistemological crisis.

First World is about working knowledge first-hand. The First World generated knowledge by itself and used those systems to benefit.  Second World worked on noxious trash generated in the First World, but, independently.

The Third World got knowledge systems from the first two Worlds and treated them as holy doctrines. These doctrines do not address their realities but they tried their best to concoct their realities to fit those doctrinal frameworks.

More tragically, when they try to indigenize their operating epistemology, they make their traditional doctrines mirror those foreign epistemologies they wish to replace.

Niraj Kumar Jha

शुक्रवार, 9 अगस्त 2024

FIRE to Hire

Generating jobs is a tricky national economic challenge. The economy grows because of the infusion of more sophisticated technologies, but it hardly leads to more jobs.

There are ways to tackle the crisis but here is one out of the box. It is FIRE: Financial Independence, Retire Early. FIRE is a global movement involving people trying to get financial independence sooner, so they can retire early.

They earn and save aggressively initially and after building a corpus they largely live on their saved money and assets. The movement is also catching up in India. If this movement crosses a threshold, it will create vacancies faster and financially independent retired people will boost the economy by continuously generating demand.

Lower taxes on earnings and savings, lower inflation, and general security may greatly strengthen the FIRE movement and naturally, there would be more jobs for younger people.

Niraj Kumar Jha

Devising Self-test

One must devise and continuously upgrade a test to check whether one's thoughts are good or bad, appropriate or mistaken, and substantial or frivolous. Hardly, anybody risks calling one an idiot if one is ignorant of what the person should know. I must be aware that my idiocy harms the social good on which my personal good depends. In fact, nobody has a right to be irresponsible in their expressions as no expression is without consequences.
 
Niraj Kumar Jha

बुधवार, 7 अगस्त 2024

Human Dignity and Democracy

Respect for human dignity is the essence of democracy. If you care for your dignity and believe in human dignity, you do everything possible to sustain, strengthen and refine democracy.

People often confuse democracy with its form and remain oblivious to its essence. A true democracy finds its operating procedures. Even actors, often highly acclaimed for their contributions to upholding and promoting democracy, and electors have limited roles.

It is the two intertwined values, rationalism and humanism, that generate the essence, i.e., the general respect for human dignity.
It is a historical process by which these values get embedded in the human mind and the race evolves into a democratic commonwealth.

Now the question comes what led to and sustains democracy in India? Primarily it is the Sanatana Dharma. The Dharma has a fair mix of concerns for noumenal and phenomenal. It cares both for the earthly and the heavenly. At times it prioritises the collective but mostly brings individuals to centre stage. Most importantly, it very unambiguously asks for reliance on self-intelligence. Unlike all religion cum philosophical enterprises, the Sanatana had high compatibility with modernism. Europe which happened to have birthed modernism had rejected its religion to embrace modernism. Let me remind here that humanism and rationalism are also the core values of modernism. It is modernism which evolved into democracy.

Modernism realises itself through systematic administration and free enterprise, i.e., bureaucracy and capitalism. Bureaucracy should not be confused with feudalism-fused pubis order of patronage. It is about managing both public and entrepreneurial affairs. Capitalism brings the spirit and substance of democracy into a society and bureaucracy makes it operational. The unavoidable features of the whole enterprise are efficiency, economy, and accountability.

What we can do to strengthen democracy, which remains a fragile order globally?

For this, we must recognise the merit of individualism and have faith in their faculty and agency. But we would be able to do this only by doing something else.

Here comes the role of education, to speak more precisely, of pedagogy. The nation must spend more on STEM. And secondly, we must let educational institutions evolve autonomously. The collegium of academics alone should have the responsibility of running an institution, preferably with self-funding.

Niraj Kumar Jha

शुक्रवार, 2 अगस्त 2024

Mobiles: A Perspective

Nothing is without its flipside and internet-connected mobile phones cannot be an exception. The crucial fact is that this instrument has revolutionised life. Nothing in the history of humankind has empowered all and sundry even in a remotely comparable way as mobile phones have. It has raised too many out of poverty too. As a business tool, it has helped even the poorest ones. Most critically, it is a great support to lonely people. It is not that mobiles make people aloof; the fact is that most people hardly have any company as they are uprooted and unaccepted. Mobiles provide company to these unlucky people.
 
Niraj Kumar Jha

बुधवार, 31 जुलाई 2024

Ignorance

Ignorance is not about speechlessness or inaction. Rather, it is about disproportionate verbosity, discourses, and activism.

Niraj Kumar Jha

Crises: Moral or Intellectual?

It is the strangest thing but so prevalent. People find a later appearing thing as a cause for a long-prevailing problem. For instance, earlier they blamed books and films for moral turpitudes. Now they have got internet and mobile.

Niraj Kumar Jha

वामपंथ के इतिहास से सीख

हालाँकि यह किसी भी क्रांतियोजना के लिए सही है, जैसा कि वामपंथ के साथ था। वे पंथ की विफलता का कारण रास्ते पर सही ढंग से नहीं चलना बताते थे। उनके अनुसार उनकी योजना पूर्णतया त्रुटिहीन और वैज्ञानिक थी और उसकी क्रियाशील स्थिति के संकट लोगों में व्याप्त अनैतिकता के कारण थी। इसे स्वयं वे वामवाद कहते थे, और उनके लिए इसका उपचार लोगों के साथ क्रूरता थी। प्रश्न यह है कि उन्होंने मानवों की मानसिकता, जो किसी मानवीय व्यवस्था का आधार है, को सही तरीके से दृष्टिगत क्यों नहीं किया? यह निश्चित रूप से उनके दावे के विपरीत उनकी योजना में वैज्ञानिकता का अभाव था।
 
बुद्धिमत्ता इसी में है कि जीने को निष्कंटक और सहज बनाने के लिए प्रयास होते रहने चाहिए। इसीसे सकारात्मक परिवर्तन आता है। आमूलचूल बदलाव के द्वारा समस्याओं का पूर्णरूपेण निदान एक भुलावा है, जो ऐतिहासिक विवरणों से स्पष्ट है कि उनमें से कई भारी आपदाकारी रहे हैं। यह अलग तथ्य है कि इतिहासकार उन सभी घटनाक्रमों का महिमामंडन करते हैं। जो चल रहा है, उसमें कैसे सुधार हो? इसके लिए बिना किसी के जीवन में विघ्न डाले विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी के माध्यम से ज्यादा प्रभावकारी परिवर्तन लाये जा सकते हैं।
 
नीरज कुमार झा

मंगलवार, 30 जुलाई 2024

आभासी आपण

जीने के लिए संघर्ष करते लोग 
सबसे बड़े बाजार हैं 
फ़साने-तमाशों के 
वे खरीदते हैं 
खून-पसीने की कमाई से 
आभासी उपलब्धियाँ और गौरव 
उनका अपना  कुछ नहीं होता 
देखते सपने भी किराए से 

नीरज कुमार झा 





चर्वण

समझ की पुड़िया 
सोच की पुड़िया
मिल जाती भाव बेभाव
चबाता थूकता आदमी

नीरज कुमार झा

रविवार, 28 जुलाई 2024

International Competitiveness

National power, wealth, and prestige form a composite, which, by and large, leads to general wellness. The composite is not a standalone phenomenon, but only a relative one internationally. It is the edge over the rest, that matters. Public intellectuals must identify and spread awareness about the policies and practices which boost national competitiveness. The base of such a competitive state is our share in the global GDP par with the percentage of our numbers in the world population, which are 7.86 (PPP) and 17.76 respectively. The gap must be covered as fast as possible.

Niraj Kumar Jha

मंगलवार, 23 जुलाई 2024

सदेह कर्म

डगमगाते कदम जब
विश्वास हो जाता क्षीण
साधारण सा ही
अपना किया कुछ अच्छा
आ जाता है देने सहारा
आस्था कराती करम अच्छे
वे रहते सदेह हमेशा साथ
 
नीरज कुमार झा

रविवार, 21 जुलाई 2024

Changeism

Change, by itself, became a super value during radicalism's heyday, commanding and demanding everything. It meant certain people could fancy unimaginably fanciful things and find volunteers to execute those absurdities. They in fact devastated the lives of scores of individuals and families and destroyed innumerable communities without a compunction. This is the history of the modern age in a nutshell. It is simple to know that they wanted to change and their obsession with change even dwarfed what they wanted to change. History now teaches us that, in fact, those great revolutions stood denied by the events just following any such successful accomplishment. We get only cropped versions of those historical events telling us what they wanted to glorify, an abrupt change.
 
Change is not a bad thing in itself. Change is inevitable and there is nothing permanent except the occurrence of changes. It happens on its own and the best changes are those, which remain imperceptible. We the present generation witness this. We are undergoing the most profound changes in human history, but we hardly talk about the times like people would have about their times undergoing dramatic events. People should work diligently, honestly and intelligently, all good changes occur without asking.

Niraj Kumar Jha

बुधवार, 17 जुलाई 2024

Constitutionalism

The political association is meant to secure the life, liberty and property of everyone. Constitutionalism is the mechanism which makes a constitution work for this purpose. Among others, it guarantees the safety of possessions and enterprises. It is a collective obligation to ensure that everyone and every corporate entity carries out their businesses without any restrictions to the point they do not harm the legitimate interests of others. Constitutionalism differentiates civilizations from barbaric races.

Niraj Kumar Jha

मंगलवार, 16 जुलाई 2024

Who is an idiot?

Originally, idiocy meant disinterestedness towards public affairs. As such it is still a valid categorisation of unworthy people. Nowadays, it is a word to demean people by swearing that they are of discrepant mental state. On the contrary, the word betrays a discrepant social order instead. It works as follows in the next paragraph.

A superior in any setting castigates those people as idiots who do not comprehend their wishes and obey duly. Idiocy is not the intrinsic lack of quality, it is a relative disadvantageous positional vulnerability of getting humiliated. A person with a slavish mentality and machine-like efficiency is considered intelligent. A more humane and natural human person may be held as an idiot. In the general social milieu a person not at home in the mainstream ideology is seen as an idiot.

Are 'wise' people, who see others as idiots, wise? If you are not an idiot in the original sense, i.e. lacking in public interest, you know now that such people are not truly wise.

Niraj Kumar Jha

रविवार, 14 जुलाई 2024

अनादि से अनंत

रास्ता ही है 
मंजिल नहीं है
लगी है भीड़ फिर भी
मार्गदर्शकों की

चलना ही है
पहुँचना नहीं है कहीं
अबूझ है 
पथप्रदर्शकी 

नीरज कुमार झा

History of Epistemology Or History of Knowledge

People seemingly ardently independent in thoughts and actions, in self-perception or in general, may be wired to some preexisting ideology and action plan, and they may not know that. They may be talking about and doing something, which may be only out of fashion. The knowledge of the history and sociology of knowledge in terms of the outcome of their play is a piece of critical knowledge.

Niraj Kumar Jha

Talk of the Town

Earlier any extraordinary occurrence used to be the talk of the town, now in the age of social media, it is the talk of the nation and such talks go beyond, all that in a very amplified form. A grand thing gets its grandeur from the attention it gets. What is the worth of it when a peacock dances in the wilderness (जंगल में मोर नाचा, किसने देखा रे)? For others, depending on their location, such events may be either elevating or demeaning. A discerning person should have the knack of knowing what helps them and what does not help them individually and collectively, and they should be selective in taking note of and talking about occurrences around. One must know that the attention an event attracts is the critical issue, not its praise or censure.
 
Niraj Kumar Jha

शनिवार, 13 जुलाई 2024

Jewels of the World

India's top institutions mine diamonds, shape the rough stones into faceted gems and gift the jewels to the USA. They indeed serve humanity.
 
Niraj Kumar Jha

शुक्रवार, 12 जुलाई 2024

GK-ing Conversation

The sore of pedagogy, the disproportionateness of GK, is destructive to meaning. GK wallahs intervene eagerly and instantly eliminate any possibility in a conversation.

What is GK-ing? 

A coinage to identify people who try to impress people by dropping pieces of their GK in a conversation without showing any involvement in the theme of the conversation. They just kill a potentially good conversation with their arrogant attitude.

Niraj Kumar Jha

बुधवार, 10 जुलाई 2024

Paul and Peter

Paul burnt the midnight oil
He was talented and got a job
Now he works day and night
And he is the one who pays

Peter slept without a care
He never felt like applying his mind ever
He hardly works
And takes away what Paul pays

Niraj Kumar Jha

रविवार, 7 जुलाई 2024

सच से दूरी

सच से दूर रहना ही सच से बचे रहने का तरीका है
बड़े से बड़ा झूठा भी सच की ताकत को जानता है

इसलिए वह कहता ज्यादा और सुनता बहुत कम है
सुनने से उसे अपने झूठ का घर ढह जाने का डर है

नीरज कुमार झा

Social Scholarship

Social trends are difficult to analyse and theorise as they involve human beings and numbering too many. As it is, scholars can freely designate their fancies as theories in this domain. In the larger social context, it is difficult to prove anything and it is more difficult to disprove that thing. In social scholarship, the credentials and craft of the scholar matter, not the worth of the statement.

Niraj Kumar Jha

Concerning People in Gatherings

People do many things because of their alienation, incompleteness, and anxieties. They seek and have some psychological assurance when they are part of a great assemblage celebrating together something ethereal, not earthy or useful. When on their own, these people identify with some celebrity from any walk of life in a way that makes them feel that they share their glory, thus making up for their vacuous existence.

I envy them.

Niraj Kumar Jha

शुक्रवार, 5 जुलाई 2024

विचारशीलता

विचारशीलता ही विचारधाराओं से रक्षा कर सकती है। संकट लोगों की विचारशीलता को नष्ट कर देता है और वे विचारधारा में अपना उद्धार देखने लगते हैं। विचारधारात्मक उद्धार नियोजन उन्हें इस स्तर तक मानसिक पंगु बना देता है कि उनके लिए संपत्ति और विपत्ति का भेद ही समाप्त हो जाता है। विचारधाराग्रस्त क्षेत्रों में सभ्यता और मानवता जीवंतता खो देती है और दुनिया के दूसरे हिस्सों में जीवन को भी संकट में डालने लगती है।

विगत के घोर संकटकालों में प्राचीन भारत की विचारशीलता की परंपरा ने ही भारत की रक्षा की। यह अवश्य हुआ कि आयातित और आरोपित विचारधाराओं का दुष्प्रभाव भारत पर पड़ा और आज भी है, लेकिन यह हमारी पीढ़ी के लिए सौभाग्य का विषय है, और मानवता के लिए भी, कि भारत संकट के अतीत को पीछे छोड़ चुका है और उसकी मेधा अनधीन हो चुकी है। अब तय है कि वह प्राचीन मेधा पुनर्नवा होकर मानवता का मार्ग प्रशस्त करेगी।

नीरज कुमार झा

रविवार, 30 जून 2024

Educatedness

If not educated well, people listen to fears first, next to expectations, and then comes spectacle to them. They follow the herd, practice superstitions, and celebrate ignorance. They are mostly deaf to reason and oblivious to substance. Education makes folks human.

I have devised here a test to know people who are educated.

Niraj Kumar Jha 

शनिवार, 29 जून 2024

Preserving Talent

A time and space only generate a few, rather exceptionally, naturally talented people. Any civilization can count their number in its history. The modern age provides a relatively fertile ground for talents to grow but they are still scarce. A community or nation should nurture those talents with utmost care. Poor countries either waste or lose them to the benefit of rich countries. A rich country is rich as it pools talents from all over the world. If such talented people remain unrecognised, it would be only a competitive loss to the nation, but an absolute loss to humanity.

Niraj Kumar Jha

शुक्रवार, 28 जून 2024

Ease of Living

People talk about the ease of doing business but what they almost ignore talking about is the ease of living. 

Ease of doing business leads to general prosperity and the creation of employment. In fact, there is no other way to let everyone willing to work have a job. It also gives a competitive advantage to the country in the international market. In addition, the economic strength feeds the military muscle on the one hand, and surpluses nourish cultural efflorescence on the other. Certainly, people should talk about the ease of doing business more.

Though incomparable, the ease of living is rather more fundamental in nature. It is generally believed that people living through tough times are heroic ones, and they are bringers of good times. Truth is rather the opposite.

Bad times mostly lead to worse times and worse to the worst, and this is an endless spiral. If one studies history, one can see a declining phase lasts for centuries and often a rise is brought about by not the decaying stuff but by something new emerging mostly unrelated to the rot. And, it is only good that leads to better.

To live with ease is about optimising certainties and thus ensuring general stability. People certain of things spend more, donate more and care more for each other. Insecure people do just the opposite. Secure people can think clearly and find better mechanisms to meet the challenges. Such a scenario leads to peace and prosperity for optimum numbers. Even the worst off have adequate support as charities abound. The basic fact is that the ease of living is the raison d'etre of politics. Otherwise, it is chaos.

The rise of capitalism is associated with the advance from adventure to calculation in carrying out businesses. It happens when the rules of the games are fixed and uncertainties are reduced to a minimum. You can understand the importance of trains running on time.

At the mundane level of governance, it means policy stability and predictability. Frequent changes in the rules of games and rude shocks are undoings of the policy of policy-making.

Niraj Kumar Jha

गुरुवार, 27 जून 2024

गहरी बातें

कहना आया नहीं बातें बड़ी करता हूँ
हताशाएँ छिपाने बातें गहरी करता हूँ

नीरज कुमार झा

अनकहा जीवन

कहना है कुछ
कह जाता कुछ और
अपने लिए भाषा ही नहीं बनी
​भाषा उतनी ही है
जिससे चलती विचारधाराएँ 
जीवनियाँ तो लिख जाती हैं
जीवन अनकहा रह जाता है

नीरज कुमार झा

सोमवार, 24 जून 2024

Publicising Personal

Privacy, it seems, is a dated idea. People flash their very personal indulgences and intimate moments on 'social' media.
 
As I see it, the latent story is different. They are, in fact, celebrating their newly-gotten selfhood. Barely a generation ago, selfhood was an elitist possession only.
 
They should thank economic liberalisation, post-1991, for that.
 
Niraj Kumar Jha

Guinea-pigism

Mostly, ideologies including such great philosophical works, as Plato's Republic, base themselves on the assumption that human beings are guinea pigs. Their lives and feelings are immaterial. Ideologues think without compunction that they can subject people to their fancies.

Strangely, human psychology is such that they fall for these ideologies and take it absolutely normal to be treated as guinea pigs.
 
Anything that matches the madness of ideological enterprises is the holification (sanctification) of the acts of predation.

Niraj Kumar Jha

सोमवार, 17 जून 2024

ज्ञान, बुद्धि, कौशल, और चतुराई

ज्ञान, बुद्धि, और कौशल पृथक् विशिष्टताएँ हैं। यह बात अटपटी लग सकती है, लेकिन ज्ञानी व्यक्ति बुद्धिमान हो, जरूरी नहीं है, और कार्यकुशल हो, यह तो बिल्कुल जरूरी नहीं है। एक व्यक्ति का इन सभी गुणों से युक्त होना दुर्लभ है। एक व्यक्ति जो कार्यकरण में निष्णात है, हो सकता है कि ज्ञान से बिल्कुल रहित हो।

मेरे उक्त अभिव्यक्ति का उद्देश्य यह रेखांकित करना है कि व्यक्ति के व्यक्तित्व का आकलन संदर्भ के अनुसार ही होना चाहिए।

ज्ञानी व्यक्ति का बुद्धिमान नहीं होना एक व्यापक त्रासदी है। ऐसे व्यक्तियों के पास ज्ञान का विपुल भंडार होता है, लेकिन हो सकता है कि वह ज्ञान के ध्येय और प्रभाव से अनभिज्ञ हो। उसके द्वारा ज्ञान का सम्प्रेषण वास्तविकता से असंपृक्त अथवा लोकहित का प्रतिगामी हो सकता है।

ज्ञानी और मूर्ख में भेद कर पाना भी एक कठिन चुनौती है। लोग इसके लिए व्यक्ति को प्राप्त उपाधियों अथवा पद के आधार पर उसका मूल्यांकन करते हैं, जो प्रायः भ्रामक होता है।

ज्ञान का एक प्रबल पक्ष ज्ञानी व्यक्ति का सर्वहित की व्यवस्थागत विचारों से अवगत होने की स्थिति और उसके विस्तार करने की क्षमता है। मेरे विचार से ज्ञानी व्यक्ति की प्रकृति की विशिष्टता वैचारिक संवेदना है। यदि विद्वान कर्मणा भी सज्जन और जनहितैषी है, तो वही मेरे लिए महान है।

जनहितैषी विचारों में जन की प्रभुसत्ता रहे, विचारों की नहीं, यह भी जरूरी है। विचारों की आग पर लोगों का पकाया जाना ज्ञान और बुद्धि की विकृति है; और विडंबना यही है कि यही विद्वता का सर्वाधिक क्रियाशील स्वरूप है।

ज्ञान, बुद्धि, और कौशल, अथवा कौशल से युक्त होने मात्र से जीवन में सफलता मिले, यह तो लगभग एक संयोग ही है। इसके लिए एक अलग विशिष्टता की आवश्यकता पड़ती है, वह है चतुराई। यह बुद्धि का स्वहित में लक्ष्यबेधी संधान है। यह अन्य का स्रोतीकरण है। ऐसे जन स्वयं को स्वाभाविक रूप से साध्य और अन्य को साधन के रूप में प्रयोग करते हैं। उनके लिए ज्ञान भी स्वहित हेतु एक संसाधन मात्र है।

नीरज कुमार झा

शनिवार, 15 जून 2024

Anticolonialism and Postcolonialism

First, let me define these two terms for the sake of clarity. I would welcome being corrected if they are off the mark.

Anticolonialism was an ideological project and action plan for exposing colonial designs, legitimacy, and hegemony; and seeking national liberation from colonial rule.

Postcolonialism is a philosophical enterprise and programme for national reconstruction after the colonial devastation for redeeming dignity in people's living conditions and an egalitarian world order. Postcolonial theoreticians have uncovered the continued sway of colonial epistemology and institutions denying autonomy and agency to the decolonised world. 
 
The postcolonialism programme is proving to be trickier. Earlier they relied on Bolshevism, but being a deceptive doctrine of liberation it failed all its adherents and even its homeland. Postcolonialism needs new consciousness and fresh imagination. We need the significance of self-educated people in numbers.

Niraj Kumar Jha

शुक्रवार, 14 जून 2024

Democracy and Capitalism

There is an invisible hand which works behind the visible working of democracy and capitalism. The components of the invisible are however decipherable; the crucial one of them is the significance of the number of people who tend to respect themselves, seek self-reliance, have a mind of their own, and can apply their minds. This is a long-drawn historical process of how people inhabiting a land could evolve to such a state.

Just to prove the point, a capitalist may be least friendly to capitalism, as they may not like free market and competition. They may apply extra-market means to eliminate competition.

To clarify the title of the post: democracy and capitalism are the two sides of the same coin, that is liberalism.

Niraj Kumar Jha

मंगलवार, 11 जून 2024

समझ की समझ

संतुलन के सरोकार और समांतर की खोज समझ को अक्सर दिग्भ्रमित कर देती हैं। तुलनात्मक उपागम अत्यंत सावधानी की मांग करता है, अन्यथा सामान्य और विकृत समान रूप से प्रतिष्ठापित हो जाते हैं।

नीरज कुमार झा

रविवार, 9 जून 2024

वैश्विक सकल घरेलू उत्पाद में हमारी हिस्सेदारी

भारत का वैश्विक सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में हिस्सा 3.37 प्रतिशत है। हमारा प्रयास होना चाहिए कि अधिकतर भारतीयों के जीवन काल में यह कम से कम 20 प्रतिशत हो जाए। यह विकसित देशों के तुल्य संतोषजनक  मानक जीवन शैली प्राप्त करने के लिए तो आवश्यक है ही (विकसित देशों की वैश्विक जीडीपी में हिस्सेदारी उनकी वैश्विक आबादी के प्रतिशत से चार से पाँच गुणा ज्यादा है), राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए भी अपरिहार्य है (चीन का 17.86 प्रतिशत है)। देश की सामरिक शक्ति अंततः आर्थिक शक्ति पर ही निर्भर करती है।

कोई पूछ सकता है कि अन्य सरोकारों का क्या होगा? उत्तर यह है कि अन्य समस्याओं को दूर कर ही हम इस लक्ष्य को प्राप्त कर सकते हैं। उदाहरण के लिए गुणवत्तापूर्ण शिक्षाव्यवस्था, चिकित्सासेवा, कानून व्यवस्था, तथा जेन्डरन्याय आदि के बिना यह संभव ही नहीं है।

यदि किसी कार्यक्रम या योजना से जीडीपी वृद्धि दर अप्रभावित रहती है अथवा नकारात्मक रूप से प्रभावित होती है, तो वह कार्यक्रम के लक्षित समस्या का निदान नहीं होगा बल्कि समस्या को लेकर भ्रम फैलाना होगा।

जो कवि-साहित्यकार, दार्शनिक आदि उदारीकरण का विरोध करते हैं, उन्हें भी अच्छी आमदानी होगी। अभी तक के आर्थिक सुधारों का फायदा उन्होंने देखा है। उनमें से कुछेक तो चार्टर्ड हवाईजहाजों से सफर करते हैं।

नीरज कुमार झा

शनिवार, 8 जून 2024

Intellectuals

Professional intellectuals, in particular social scientists, have unavoidably to live a dual life. An intellectual is first a subject and actor in social life and secondly a neutral observer and interpreter of institutions and processes. In the first role, they may be passionate activists and in the second role, they are neutral observers and resource providers for corrective or progressive recourse.

Marxism advocates activist intellectualism. They make a gross fallacy. The sway of teleologism and economic determinism over the intellectuals of this school is a telling example of intellectualism gone wrong. First, the doctrine asserts that social dynamics are determined by their scientific rules and contradicting the same, its successive ideologues kept on devising comprehensive plans and organisations for social action and resorted to propaganda to make what they perceived as scientific inevitability happen. In fact, they were trying to make up for a deficient doctrine.

The point here is that an intellectual has a greater role than just acting and reacting in response to events and has to rise above personal likes and dislikes. They need to delve deeper and find out causes and underlying currents to identify the true nature of social phenomena and to suggest means to improve societal practices and direct the social dynamics in a desirable direction.

A passionately activist intellectual mostly thinks unilinear and takes a predicament as a given, which they seek to fight with the force of sheer numbers or by making loud noises. They also turn partisan as a result of this proclivity and mainly play the role of cheerleaders or mourners as per the fate of their chosen outfit. They also do not serve their group as they can only charge their fellow activists emotionally and they do not point to the strengths and weaknesses of their programme or agenda or of those of their adversaries.

Intellectuals need to review their professional role with some seriousness.

Niraj Kumar Jha

गुरुवार, 6 जून 2024

Democracy in India

Democracy in India has deep roots. It is in its civilization. Those who are not aware of or do not have a feel of India's civilizational traditions and heritage wonder at the success of democracy in India. The fact is simple; when India gained independence, all the factors which the Westerners regarded as compulsory for democracy to grow and flourish were missing. It happened despite everything and India remained a democracy, particularly in a global scenario where even today nearly half of the world's countries have yet to gain the dignity of being meaningfully democracies. There is no other factor than its civilization, which places India in this extraordinary and exceptional position.

However, this is not to say that the Indic civilization underwent a sudden transformation to democracy on its strength alone. The process was seeded during the colonial rule itself and other factors came into play supporting and catalysing the makeover.

Two factors which supported the process were the rise of the middle class and later the growth of Indigenous industrial capitalism in the early twentieth century.

It is the combination of these two factors, which made India survive the collectivist experimentation for nearly four decades.

Now, India is in the process of recovery; though the intellectual scape is still to be cleaned of the collectivistic pathogens.

Let my country awake.

Niraj Kumar Jha

बुधवार, 5 जून 2024

राजनीति और व्यापार

दो परिघटनाएँ जो जीवन और विकास के लिए सबसे जरूरी हैं, उनकी संज्ञाओं को हम नकारात्मक अर्थों में लेते हैं। राजनेता भी कहते सुने जा सकते हैं कि यह राष्ट्रीय महत्व का मुद्दा है, इस पर राजनीति नहीं होनी चाहिए। लोग अक्सर कहते हैं कि शिक्षा अथवा चिकित्सा का व्यापार नहीं होना चाहिए। 

हमारी हर समस्या का समाधान और बेहतरी का उपाय राजनीति से निकलता है और वे सभी चीजें जो हमारे जीवन को संभव बनाती हैं, भोजन, वस्त्र, आवास, दवाइयाँ, आवागमन के साधन इत्यादि, व्यापार के माध्यम से ही हमें उपलब्ध होती हैं।
 
हमें पाखंडियों के प्रभाव को नकारना होगा और जीवन के सबसे प्रभावशाली निर्धारकों के प्रति सकारात्मक दृष्टि अपनानी ही होगी। हमें समझना होगा कि व्यापार से उत्पन्न धन राजनीति को पोषित करता है और राजनीति का प्रधान कार्य व्यापार को निष्कंटक करना है।

नीरज कुमार झा

GDP Growth

It is the GDP growth, which decides the destiny of a nation. The economy is the belly, which feeds both, the muscles and brain of a country. A robust economy can only sustain and strengthen the military capability, intellectual prowess, and cultural vibrancy of our country.
 
Citizens must demand and strive to strike the GDP growth rate in double digits. A double-digit growth would imply doing away with all the ills in society, which bother us. Good quality education and affordable and advanced medical facilities for all are the basics for the economic takeoff and for the long haul, it must be sustainable environmentally too.
 
LPG, i.e., liberalization, privatization and globalisation we need to rethink for growth today. We must make our national ecology most favourable for entrepreneurship. Only when we have globally competitive Indian corporations, including arms industries, we can become a great power. We must expand globally to source raw materials and sell our products.
 
It is the national good on which depends the good of everyone. If the nation is powerful, everyone is secure; and if the nation prospers everyone will have a comfortable life. We have seen this happening and now we know how to make our future even better.
 
Niraj Kumar Jha

शनिवार, 1 जून 2024

जीवन का सार

मानव सृजन करता है कल्पनाओं का अलग संसार
बना लेता है निकाल उसका सार जीवन का आधार
व्याकुल मध्य अस्तित्व के अबूझ अपरिमित विस्तार
समझता नहीं कि उसकी सीमा ही है जीवन का सार

नीरज कुमार झा 

रविवार, 26 मई 2024

ज्ञानदंभ

मानवीयता का सार और स्वरूप, दोनों ही, ज्ञान है। किसी में ज्ञानग्राह्यता की क्षमता का अभाव उसमें मानवीय गुणों का अविकसित रह जाना है (यहाँ ज्ञान का अभिप्राय आदमियों के निर्धारित कार्य में मशीनी प्रवीणता से नहीं है।)। प्रत्येक सभ्य समाज में प्रारम्भिक औपचारिक शिक्षा की व्यवस्था इसी उद्देश्य से की जाती है कि बच्चों में ज्ञानग्राह्यता की क्षमता जगायी जा सके। औपनिवेशिक शिक्षाप्रणाली इसका अपवाद है (यहाँ औपनिवेशविक शासनप्रणाली से अभिप्रयाय उस शासनप्रणाली है से जिसमें शासनकर्मियों के लिए उनके द्वारा शासित/सेवित जन का हित उनका प्रधान सरोकार नहीं हो पाता है।)। ऐसी व्यवस्थाओं में बच्चों और लोगों की औपचारिक रूप से शिक्षित तो किया जाता है लेकिन व्यवस्था-नियोजन इस तरह से होता है कि उसके प्रभावस्वरूप शिक्षार्थियों की ज्ञानग्राह्यता की क्षमता प्रभावी रूप से कुंठित हो जाती है। आज की प्रौद्योगिकी की भाषा में कहें तो उनकी प्रोग्रामिंग की जाती है। ऐसी निष्प्रभावी शिक्षा का प्रभाव किसी व्यक्ति में स्पष्ट दिखता है। वह है उनका तथाकथित ज्ञान को लेकर दंभ। ऐसे व्यक्तिअक्सर मिल जाते हैं। ऐसे व्यक्तियों के कर्ण मात्र स्वयं के मस्तिष्क की प्रतिध्वनि का श्रवण करते हैं।

नीरज कुमार झा

गुरुवार, 23 मई 2024

Tonguing a Foreign Tounge

Perfecting the craft of scholarship alone does not make you a true scholar. A hundred citations may not make a piece speak for a reality. Opposing an oppressive order, for instance, epistemological imperialism, does not make you a democrat. You may only be caricaturing the imperialists seeking your little fiefdom. Or worse, you may be trying to capture the dissenting space for the same imperialists you are pretending to resist.
 
The vocal system of a person is attuned to their cultural production of sounds and not to others. Only through a very long and conscious practice, people train their tongue to pronounce the words of a foreign language. It is no less than torturing one's tongue.
 
We are also cultural beings. rather, with a longer history than most and as all cultural beings do, we can also twist the pronunciations, idioms and everything, which goes into making a language in spoken and written forms to our comfort. There is no problem as long as the other or a native speaker of a language can understand what we are trying to communicate, even if the listener has to make some extra effort. In fact, they should have corrected their language by making the spellings of words match their phonetic forms or vice versa. If they do not bother about the mismatch between how they write and speak, why should we?

We surf the internet and find many acceptable variants of any language and ways of pronouncing even proper nouns. Strangely, the very senior scholar does not know this.
 
Niraj Kumar Jha

बुधवार, 22 मई 2024

कोशिशें जारी रहीं

मैंने पूरी कोशिशें की
कि मेरा अपना वह बड़ा बन जाए

मेरे खुशी का ठिकाना नहीं रहा
मेरी कोशिशें और निवेश काम आये 

कोशिशे बाद भी जारी ही रहीं 
कि अपना वह अपना बना रहे

नीरज कुमार झा

पहचान

पहचान की खोज में अधिकतर लोग अपनी पहचान खो देते हैं। ऐसे लोग छलावे की पहचान से काम चलाने की कोशिश करते हैं और सामान्य जीवन की सहजता को नष्ट कर देते हैं।

जो लोग प्रसिद्धि प्राप्त कर लेते हैं, उनकी त्रासदी और भी गंभीर है। प्रसिद्ध व्यक्ति पुराना व्यक्ति नहीं रहा जाता है। प्रसिद्धि की एक अलग दुनिया होती है जिसमें प्रवेश पाने वाला व्यक्ति एक नया व्यक्ति होता है और नये व्यक्तियों के साथ होता है।

आदमी का लक्ष्य उसका स्व और स्वयं की स्थिति होना  चाहिए, लेकिन वह अपनी की बजाय एक सपने की दुनिया देखता है जिसमें उसके समेत सभी किरदार नए होते हैं, और वह उसे प्राप्त करने में लगा रहता है।

आदमी स्वयं रहकर और अपनी स्थिति में ही क्यों नहीं जीना चाहता है? उसे ही क्यों नहीं वह बेहतर बनाना चाहता है?

इसका कारण सामान्यतः लोगों के जीवन में अपमान और वंचना का अनुभव असह्य होना है। ऐसी स्थिति की व्याप्ति का इतिहास है।

हमें एक-दूसरे का सम्मान करना सीखना होगा। एक-दूसरे के काम आना होगा। एक-दूसरे की निजता स्वीकार और दूसरे की उपलब्धियों की सराहना करनी होगी। प्रत्येक व्यक्ति को यह भी ध्यान रखना होगा कि सफलता के अनुपात में उसकी विनम्रता भी बढ़े। उसे पता होना चाहिए कि आक्रामक सफलता पशुता का परिचायक है।

नीरज कुमार झा

रविवार, 19 मई 2024

आदमी हुक्म बजाता है

चेहरे पर मुखौटा है
मुखौटा ही बोलता है
मुखौटा ही सोचता है
मुखौटा ही बताता है
आदमी हुक्म बजाता है

नीरज कुमार झा

शनिवार, 18 मई 2024

Beyond Ideological Fixation

People's worldview or their approach or orientedness to life is largely ideologically determined or that may be an evolved ideology by itself. People may be indoctrinated into an ideology or they might have been in it through generations as an evolutionary process. People may be lethargic or fearful of thinking afresh and thus ideologies exist inevitably as fixities.

Settled ideologies serve people to their comfort. Disturbing stability may not surpass the troubles it may cause in terms of the benefits it may reap. Therefore, the rational path is a piecemeal approach to social good. However, a piecemeal approach requires extraordinary philosophical minds in action. The challenge remains; how to get those extraordinary minds and bring them into action. What we can do is to make people realise that they see things through ideological lenses and reality may vary. And, an unjust order helps none. If this somehow gets into our operative epistemology, we may at least have the chance of having people more capable of seeing things as they are.

Niraj Kumar Jha

गुरुवार, 16 मई 2024

बुधवार, 15 मई 2024

Schools

 If schools run well, everything goes well. 


Niraj Kumar Jha 

Cooperativism

 Cooperatives can be the most wonderful way to organise social life and ensure dignified livelihoods provided these are voluntary and mutual. Business cooperatives for any economic activity can immensely benefit all its members and compete well with even giant corporations. In particular, milk cooperatives and self-help groups in India have amply proved this. The way can be extended to social living by integrating individuals and families into caring communities. However, it would require setting norms for combining individual freedom and community responsibilities and a smooth procedure for joining and exiting a community. 

    Cooperatives fit perfectly in a capitalist order as the cooperatives may work as productive units of the economy while doing away with many probable ills of capitalist centralisation or even democratic centralisation. 

Niraj Kumar Jha 

रविवार, 12 मई 2024

बौद्धिक वृत्ति कौशल

परिस्थितियों को लेकर उद्वेग, हर्ष अथवा विषादपूर्ण, बौद्धिक (लोकाचार बौद्धिकता) वृत्ति कौशल का परिचायक नहीं है। अधिकतर बुद्धिवृत्तिक यह नहीं जानते हैं कि उनके समान अन्य वृत्तिक का विचार उनसे  विपरीत क्यों है, यदि वे  किसी परिघटना से असन्तुष्ट हैं तो उसमें उस विचारधारा का क्या योगदान है जिसका वे परिवर्द्धन कर रहे हैं, यदि वे किसी परिघटना से संतुष्ट हैं तो वह परिघटना आगे क्या मोड़ लेने वाली है, विशिष्ट परिस्थिति और उनसे निःसृत विचारों की पृष्ठभूमि क्या है, और तमाम सामाजिक और वैचारिक विभाजनों का न्यायपूर्ण व सर्वहितकारी समाधान क्या है? यदि बुद्धिवृत्तिक क्षणिक परिस्थतियों में उलझे हुए  भावावेग में है तो वे गलत वृत्ति में हैं। बुद्धिजीवी का धर्म निर्लिप्त भाव से सर्वमंगल हेतु बुद्धि प्रयोग है। 

नीरज कुमार झा 

कथाकारिता की सीमाएँ

कथारूप में जीवन का निरापद प्रतिनिधित्व लगभग असंभव है। अधिकतर कथाएँ (विशेषकर मनोरंजन उद्योग के द्वारा प्रयुक्त कथाओं की प्रकृति) एक विशेष व्यक्ति पर केंद्रित होती हैं, और अन्य  सभी जन और परिस्थितियाँ उस चरित्र की केन्द्रीयता को पोषित करती हैं। समस्त को एक व्यक्ति के हेतु निमित्त  के रूप में  निरूपण  जीवन की वास्तविकता का विरूपण है। यह कथाकार की आत्मकेंद्रीयता और  अहमन्यता की प्रवृत्ति के  प्रतिबिंबन के फलस्वरूप  और लक्षित उपभोक्ताओं के समान भावनाओं की तुष्टि के लिए होता है।  इसका दुष्परिणाम है; यह पाठकों और दर्शकों के दृष्टिकोण को संकुचित करता है। वह स्वयं को नायक में स्थित करते हुए कथा को  ग्रहण करता है और अन्य को हेतु के रूप में देखता है। इस कारण से उसमें संवेदना और अन्य के प्रति सम्मान का भाव नकारात्मक रूप से प्रभावित होता है और वह हमेशा कुंठाग्रस्त रह सकता है। एक सुधी व्यक्ति  को कथाकारिता की सीमाओं की भिज्ञता रखनी चाहिए और उसे  इससे अन्य को अवगत कराना चाहिए। 

नीरज कुमार झा 

शुक्रवार, 10 मई 2024

तुम देखना कवि

तुम देखना कवि
कहीं तुम्हारा अभिव्यक्ति का कौशल
जीवन पर हावी तो नहीं हो रहा है
कहीं अहं को तुमने तो नहीं बना रखा है दसवाँ रस
और सभी रसों में उसे ही घोल रहे हो
कवि, तुम याद रखना
मूक जीवन मुखर होने
तुम्हारी तरफ देख रहा है
जो द्रव बन सींच रहे जीवन को
उन्हें स्वर तुम्हें उसी विनम्रता से देना है
तुम साथ रहो, साझेदार बनो
मानवता पुकार रही है
तुम एक हो, लेकिन अनेक से अलग नहीं
तुम्हें ही यह समझना है, तुम्हें ऐसे ही रहना है
 
नीरज कुमार झा

बुधवार, 8 मई 2024

The Job of Teachers

The formative years of people are foundational for their intellectual becoming. What they learn primarily stays with them throughout their lives and judges for them all other ideas and conditions which come later to them. They may turn opportunistic while maturing but the formative learnings inform their morality even if they may not care for that. When they speak, it comes from their basic learnings and what they do carries the weight of living conditions. The dichotomy is due to the weakness of epistemology but that is not a concern of this post. It is about the job of teachers who play a crucial role in the becoming of beings. They must cultivate the ability and strength to see through the ideas and ideologies that pervade the times and to see that the young people they work with can find their path by applying their genius. 

Niraj Kumar Jha 

सीखना

ज्ञानी होना कोई स्थिति नहीं है, यह ज्ञानार्जन की प्रवृत्ति है। यह सीखते रहने की निरन्तरता है। ज्ञानी होने का प्रधान पक्ष कुशल होना नहीं, जिज्ञासु होना है। कार्यकुशलता और विनम्रता ज्ञानवान होने के स्वाभाविक लक्षण हैं। वैसे सीखना किसी व्यक्ति के लिए प्राकृतिक प्रक्रिया है, लेकिन यह सीख परिस्थितियों से अवगत होना मात्र है। ज्ञान का संबंध परिस्थितियों की व्यापक समझ से है, जो परिस्थितियों के कारण-परिणामों के रूप में विभाजित करने और उसपर कार्य करते हुए समस्यामूलक स्थितियों का निवारण और सुधार को लेकर है। इस तरह का सीखना स्वाभाविक नहीं है, इसके लिए काफी प्रयत्न करना होता है। सीखने का कौशल प्राप्त करना प्रयास के क्रम में कभी एकाएक होता है या फिर कभी नहीं होता है।

नीरज कुमार झा